बिहार और विद्यापति
१. सन् १८७५ से दरभंगा में रेलवे की
शुरुआत हुई, उत्तर बिहार की यह पहली रेल थी । दरभंगा से समस्तीपुर,दलसिंहसराय और
बाजितपुर होकर चमथा घाट तक यह रेल जाती थी ।
चमथा घाट वही स्थान है , जहाँ पहले दरभंगा,मधुबनी,समस्तीपुर,नेपाल आदि के लोग
गंगा स्नान करने जाया करते थे । जैसे आज लोग अभी सिमरिया घाट स्नान
करने जाते हैं, जो चमथा घाट से कुछ कि .मी.पूरब की ओर है । इसी बाजितपुर में
महकवि विद्यापति ने ६०० वर्ष पूर्व अपनी जल समाधि ली थी ।
कहा जाता है कि दरभंगा से चलते-चलते गंगा के नजदीक, बाजितपुर पहुँचने पर
विद्यापति वहीं रूक गए। उन्होंने कहा ,"मैं गंगा मैया का दर्शन करने इतनी दूर से
आया हूँ ...तो गंगा मइया मुझे दर्शन देने कुछ दूर खिसक कर मेरे पास नहीं आ सकतीं ? मैं अब आगे नहीं बढ
सकता। किंवदंती है कि भक्त के आगे गंगा मइया झुक गई और रातों-रात धारा के
रूप में दौड़ कर चली आयी.. अपने भक्त विद्यापति के पास और विद्यापति ने उसी
धारा में अपनी समाधि ले ली ।
२. विद्यापति एक महान शिवभक्त थे, हलांकि मिथिला की
परंपरा अनुसार वो पंचदेवोपासक अर्थात् सूर्य, दुर्गा, माधव ,शिव,गणेश के उपासक थे । वो इतने बड़े
शिवभक्त थे कि साक्षात महादेव उगना के रूप में (टहलुआ) नौकर बनकर उनके साथ रहने
लगे।
विद्यापति को इस तथ्य का ज्ञान तब हुआ,जब वह एकबार जंगल में उगना संग
भटकते हुए प्यास से तड़पने लगे। आसपास कहीं जल का नामो-निशान नहीं दिख रहा था।
उगना ने इस निर्जन वन में उन्हें कहीं से जल लाकर दिया । विद्यापति ने जब जल
ग्रहण किया तो उन्हें लगा कि यह सामान्य जल नहीं है... गंगाजल ही है। और उनका यह
संदेह सही निकला , सामने उगना ...महादेव के रूप में प्रकट होकर खड़ा था । विद्यापति
महादेव के चरण पकड़ लिए। लेकिन महादेव ने विद्यापति को इस शर्त में बांध
दिया, कि इसकी
गोपनीयता को हमेशा बनाये रखें। जिसदिन यह रहस्य खुल जाएगा, उसी क्षण उगना
अंतर्ध्यान हो जाएगा। यह कहकर उगना पुनः अपने स्वरूप में आ गया।
३.एकबार उगना को जलावन काटकर लाने में विलम्ब हो गया तो विद्यापति की
पत्नी क्रोध से आगबबूला हो गई । जैसे ही उगना को जलावन के साथ आते देखी
क्रोधांध होकर उसे मारने दौड़ी। पत्नी को इस तरह रणचंडी रूप में देखकर
विद्यापति चिल्लाए , " अरे क्या कर रही हो ? रूक जाओ... ये
साक्षात महादेव हैं। इतना सुनते ही उगना अंतर्ध्यान हो गया।
विद्यापति उगना को हर जगह ढूंढने का प्रयास किए ...पर जब वो नहीं मिला, विद्यापति निराश और
दुखी हो गए। तत्क्षण उनके मुँह से करूण गीत प्रस्फुटित हुआ--'उगना रे मोर कतय
गेले...' । आज भी मिथिला में यह गीत प्रख्यात है
और इस गीत को महादेव के गीत के रूप में गाया जाता है ।
४. विद्यापति संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान
थे।लेकिन लोकभाषा (अवहट्ट ) में भी वो उतने ही प्रवीण थे। उनके रचित भक्ति रस
(महादेव और भगवती ) तथा श्रृंगार रस( राधाकृष्ण) के अनेकों गीत आज भी
मिथिला में विवाह,यज्ञोपवीत,मुंडन आदि के अवसर पर व्यापक रूप से गाये जाते
हैं ।
विद्यापति के श्रृंगार रस के गीत संपूर्ण पूर्वी भारत में वैष्णव मत
को मजबूत करते आ रहा है । कहा जाता है कि विद्यापति के ऐसे ही गीतों को गाते हुए
बंगाल के महान वैष्णव भक्त ' चैतन्य महाप्रभु ' मदहोश हो जाया करते थे। संभवतः इनके गीतों
का इतना व्यापक प्रभाव हुआ कि विद्यापति जितना मिथिला के माने जाते थे...उससे कुछ
अधिक ही बंगाल के माने जाने लगे । विद्यापति रचित मैथिली महादेव गीत- 'कखन हरब दुख मोर हे
भोलेनाथ ' पंद्रहवीं- सोलहवीं सदी और उसके बाद भी त्रस्त, दुखी मिथिलावासियों के लिए बहुत बड़ा
संबल रहा है ।
५. विद्यापति मिथिला
में जिस राजदरबार में थे, वह 'ओइनबार राजवंश' था । विद्यापति
१४वीं शदी के राजा देव सिंह तथा इनके पुत्र राजा शिवसिंह के दरबार में सक्रिय थे ।
राजा शिवसिंह से इनका विशेष लगाव और तादात्म्य था । एकबार राजा शिवसिंह
द्वारा अपने को स्वतंत्र घोषित किए जाने के बाद ...तात्कालिक मुस्लिम शासन जौनपुर
के सुल्तान ने मिथिला पर चढाई कर राजा शिवसिंह को पराजित किया और उन्हें कैद कर
दिल्ली भेज दिया।
अपने राजा को छुड़ाने के लिए विद्यापति दिल्ली गए। वो कवित्व एवं शायराना
अंदाज के कारण ...एक शायर के रूप में वहाँ प्रख्यात हो गए। उनकी ख्याति सुनकर भारत के
सुल्तान ने उन्हें अपनी शायरी प्रस्तुत करने का हुक्म दिया । विद्यापति ने कहा कि
, वो ऐसी
विषय पर भी शायरी कर सकते जिसको वो सामने से नहीं देखते । उनकी परिक्षा लेने के
लिए सुल्तान ने विद्यापति के कमर में रस्सी बाँधकर और उनके आँखों पर पट्टी
लगा कर ...उन्हें कुएँ में आधा लटका दिया। और उसी कुएँ के
मुड़ेर पर एक बांदी को राजा ने आदेश दिया दीप प्रज्वलित करें
।
आदेशानुसार बांदी दीप प्रज्वलित करने लगी। तत्क्षण कुएँ के
अंदर से विद्यापति, जिनके आँखों पर पट्टी बंधी थी .....के गीत की आवाज आयी ---- "सुन्नरि निहुरि
निहुरि फुकू आगि , .......मदन उठल जागि ।" विद्यापति द्वारा इस
गीत के अर्थ को समझाये जाने पर सुल्तान बेहद प्रसन्न हुए और
विद्यापति को पुरस्कार के रूप में ...राजा शिवसिंह को कारागार से तुरंत मुक्त कर
दिए।
६. विद्यापति संस्कृत
के महापंडित थे | संस्कृत में उनके अनेक ग्रन्थ हैं, जैसे— भू परिक्रमा, दान वाक्यावली , पुरुष परीक्षा , शैव सर्वस्व सार , दुर्गा भक्ति
तरंगिनी, लिखनावली आदि | अवहट्ट भाषा में भी उनकी अनेक रचनाएँ हैं , जैसे- कीर्तिलता ,कीर्तिपताका, गोरक्ष विजय.. आदि | उन्होंने मैथिलि में
बड़ी संख्या में पद्य की रचना की जो ‘विद्यापति पदावली’ के नाम से आज जाना
जाता है |
इनकी पदावली में मुख्यतः राधा-कृष्ण के प्रेम विषयक श्रृंगारिक गीत
तथा महादेव एवं भगवती अराधना विषयक गीत हैं | इसके अतिरिक्त विद्यापति रचित अनेकों
व्यवहारीक गीत भी हैं जो विभिन्न अवसर पर मिथिला के घर-घर में गाये जाते हैं | परंतु...इस विद्वता
के अतिरिक्त उनकी सर्वादिक महत्ता इसलिए है कि उन्होंने अपने समय में एक नवीन
क्रांतिकारी धरा का प्रचलन किया |
उनके वैष्णव गीतों में राधा और कृष्ण को नायक और नायिका के जिस रूप
में दर्शाया गया है वो वैदिक परंपरा से बिलकुल अलग है | राधा...एक ग्वालिन
के रूप में और कृष्ण.. एक सामान्य मानव के रूप में अंकित हैं | सामान्य गोप-ग्वालिन
के प्रेम गीत को आधार बनाए हुए विद्यापति ने जिस लोकप्रिय और वैष्णव मत का प्रचार
किया ..वह मिथिला जैसे पारम्परिक , कट्टर वैदिक परम्परा के लिए एक अद्भुत्
मिशाल बना | इस साहसिक , सांस्कृतिक रचनाधर्मिता का इतना व्यापक प्रभाव
हुआ कि इसके चपेट में बंगाल, उड़ीसा, आसाम और नेपाल इस प्रेम-गीत के रस में
मानो सराबोर हो गया |
७. प्राप्त जानकारी के अनुसार ....विद्यापति, ओईनवार राजवंश के
राजाओं और रानियों के संरक्षण में रहे | राजा देवसिंह तथा इनके पुत्र राजा शिवसिंह
और... इनके बाद वाले शासनकाल में भी विद्यापति संरक्षित रहे| यह उनकी उत्कट
राजभक्ति, उद्दात्त चरित्र एवं उच्च प्रतिभा को दर्शाता है| राजा शिवसिंह ने ‘बिस्फी
ग्राम’ विद्यापति को महान योगदान के लिए
पुरस्कार स्वरूप उन्हें भेंट किया |
विद्यापति का मूल ग्राम जो पहले मैथिल
पंजी व्यबस्था के तहत ‘गढ़ विशइवार’ था.. बिस्फी ग्राम मिलने के बाद, वह मूल ग्राम अब ‘गढ़ बिस्फी’ हो गया| उन्हें जो दान-पत्र भेंट किया गया उसकी
प्रतिलिपि अभी भी उपलब्ध है| विद्यापति की पदावली में राजा शिवसिंह और उनकी
महारानी ‘लखिमा’ का बहुत उल्लेख है|
ऐसा माना जाता है कि महारानी लखिमा विद्यापति की प्रेरणा-श्रोत थीं | जौनपुर के सुल्तान
से हुए युद्ध में शिवसिंह की पराजय और उनके पलायन के बाद रानी लखिमा की रक्षा करते
हुए विद्यापति वर्तमान नेपाल तराई में जनकपुर के निकट रजाबनौली में... वहाँ के
राजा द्रोनवारेश्वर के संरक्षण में रहे|
कहा जाता है कि अपने पति की बारह बर्षों तक प्रतीक्षा करने के बाद रानी
लखिमा सती हो गयी| जिस स्थान पर राजा शिवसिंह और सुल्तान की सेना के बीच युद्ध हुआ था, उस स्थान को आज 'शिवधारा’ के नाम से जाना जाता
है... जो दरभंगा नगर का एक मोहल्ला है|
राजा शिवसिंह बहुत प्रखर स्वतंत्रता-प्रेमी थे| ईस्लामी शासन का
नियंत्रण उन्हें स्वीकार नहीं था| राजा शिवसिंह के ऐसे क्रान्तिकारी चरित्र के
निर्माण में उनके बाल-सखा, दार्शनिक और मार्गदर्शक ---विद्यापति की
महत्वपूर्ण भूमिका का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है| अतः विद्यापति एक
महान कवि,महान पंडित और एक महान भक्त अर्थात् वह एक सार्वकालिक महान व्यक्ति थे|
मिन्नी मिश्रा /पटना