Friday, October 16, 2020

कोविड --19 का संदेश

  *कोविड -19 का संदेश* 

 सम्पूर्ण विश्व आज कोरोना संक्रमण से त्रस्त है | चारों ओर त्राहिमाम का शोर सुनाई पड़ रहा है | वायरस के संक्रमण से असंख्य लोगों की मृत्यु हो चुकी है , संक्रमण रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है | दुखद बात यह है कि इसका पूर्ण रूप से स्थायी इलाज अभी संभव नहीं हो पाया है ! कोरोना के कारण विश्व की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है जो सचमुच बेहद चिंताजनक है | 


लेकिन एक बात गौरतलब है, भारत में कोरोना की महामारी अमेरिका, ब्राजील, जापान, फ़्रांस, इटली, ब्रिटेन जैसे विकसित देशों की तुलना में अपेक्षाकृत बहुत कम है | जबकि विकसित देशों में स्वास्थ्य व्यवस्था भारत से कई गुना बेहतर है | जिससे यह कयास लगाया जा सकता है कि भारत के लोगों में रोग प्रतिरोधक क्षमता अपेक्षाकृत बेहतर है | संभवतः इसी वजह से कोरोना का कुप्रभाव यहाँ कम दिख रहा है | 

 कोरोना संक्रमण की रोकथाम में हमारे प्रधानमंत्री ‘मोदी जी’ की सतर्कता का श्रेय जाता है | कोविड-19 एक बहुत बड़ा गेम-चेंजेर साबित हुआ है | वैश्विक स्तर पर कोरोना वायरस ने जो युगांतकारी परिवर्तन लाया है, उसका अद्भुत् प्रभाव अब दिखने लगा है | 

 भारत में गरीबी,कुपोषण,कमजोर स्वास्थ्य व्यवस्था होने के बावजूद यहाँ के लोगों की इम्युनिटी अन्य विकसित देशों के लोगों से बेहतर है | इस विभीषिका के माध्यंम से प्रकृति ने हमें सुंदर संदेश दिया है ,जो चौकाने वाली है |क्योंकि,हमारी सांस्कृतिक परम्परा, जैसे—--- कीर्तन-भजन, पूजा-पाठ , परिवार को साथ लेकर चलना आदि, अच्छे संस्कारी विचारों का साइको-सोमेटिक प्रभाव स्वास्थ्य पर बहुत अच्छा होता है | अतः इस आधार पर हम कह सकते हैं कि मौलिक रूप से सनातन हिंदूवादी इस भारतीय परम्परा के जीवन्तता को बनाये रखने का संकल्प सच में कोविड-19 यह पहला अनुपम संदेश है |

 व्यकिगत अनुभव के आधार पर मैं कहना चाहूँगी कि विगत लंबे समय तक चले लॉक-डाउन में... आधुनिक विकास के मॉल, बिग-बाजार, मेट्रो, फैक्ट्री आदि सबको सुरक्षा के दृष्टिकोण से बंद किया गया | फिर भी अनाज, फल, दूध, सब्जी, अन्य जीवन रक्षक सामग्रियों का उत्पादन और इसका सभी क्षेत्रों (गाँवों, कस्बों से लेकर शहरों) में वितरण निरंतर होता रहा है| जो हमारे कुटीर, लघु, मध्यम उद्योगों तथा खुदरा व्यपारियों, ठेला- रेहड़ी वालों की उद्यमशीलता का परिचायक है | इसलिए इस सेक्टर को अधिक से अधिक विकसित करने का... यह दूसरा सुधारवादी संदेश हमें कोविड-19 देती है |

 कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग , सेनीटाईजेशन , मास्क लगाकर बाहर निकलना, साबुन से बराबर हाथ की सफाई करना , गर्म पानी का सेवन करना तथा इम्युनिटी बढाने जैसे कई महत्वपूर्ण बातें उभर कर हमारे सामने आई है | इन सभी चीजों को स्थायी रूप से अपने जीवन में शामिल किया जाय .... कोविड-19 का यह तीसरा महत्वपूर्ण संदेश है | 

 इस दौरान, सभी नदियों का दूषित जल अपने-आप साफ़ हो गया |आसमान स्वच्छ दिखने लगा |जानकारी के अनुसार नदियों में मछली, डालफिन तथा अन्य फौना के संबर्धन परिलक्षित हुए हैं |कई जगहों से हिमालय की बर्फीली श्रृंखला का दीदार हुआ | प्रदुषण मुक्त वातावरण हो, ऐसी स्थिति हमारे राष्ट्रीय नीति में स्थायी रूप से शामिल किया जाय... कोविड—19 का यह चौथा अनुपम संदेश है | 

 एक और अहम् बात , इस कोरोना काल में , ‘योग-ध्यान और आयुर्वेद’ एक वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में वैश्विक स्तर पर मान्य हुआ है | भारत नहीं पुरे विश्व में सहस्त्रों वर्ष पुरानी योग-आयुर्वेद की परम्परा को अधिक उपयोग में लाया जाय ... कोविड-19 का यह पांचवा चिकित्सीय संदेश है | 

 लॉक डाउन में सफाईकर्मी , डॉक्टर,नर्स, पुलिसकर्मी का भी अतुल्य योगदान रहा है | ये सभी योद्धा की तरह जान जोखिम में डालकर नित्य लोगों की सेवा में समर्पित हैं | निःसंदेह सभी बधाई और अभिनंदन के पात्र हैं | 

 मैं अपनी बात बताती हूँ ,मैंने लॉक डाउन को बहुत सकारात्मक रूप से लिया | कामवाली को आने से मना करने के बाद, घर के कामों को कभी बोझ नहीं समझी | हाँ, शुरू में कुछ अबुह जरुर लगा, पर बाद में सब सामान्य हो गया | पति से भी पूरा सहयोग मिला | यदि परिवार में सभी की सहभागिता की यह परिपाटी स्थायी बन जाय, तो हम कामवाली के बिना भी आराम से घरेलू कामों को निपटा सकते हैं | 


 इस दौरान एक बड़ी उपलब्धी मुझे मिली | अपने फ़्लैट की पांच महिलाओं को मैंने योग-प्राणायम सिखलाया | सोशल डिस्टेंस के नियम का पालन करते हुए, नित्य शाम के समय छत पर...मैंने उनलोगों को योग-प्राणायम सिखलाया |एक महीने के बाद सभी महिलाओं ने कहा, “प्राणायाम से स्वास्थ्य में बहुत लाभ हुआ |” जब सभी ने शारीरिक व्याधि कम होने की बात बताई, तो सुनकर मैं आनंद विभोर हो गई |

 मैं योगा ट्रेनर नहीं हूँ , लेकिन योग-प्राणायाम मेरी दिनचर्या में शामिल है | इससे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में अत्यधिक लाभ होता है,यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है |

 मिन्नी मिश्रा /पटना 

Wednesday, September 9, 2020

 


                      

              * बिहार की लोक संस्कृति *

संस्कृति ब्रह्म की भांति अवर्णनीय है|यह व्यापक है तथा अनेक तत्वों का बोध कराने वाली जीवन की विभिन्न प्रवृत्तियों से सम्बंधित है|इसलिए विविध अर्थों और भावों में इसका उपयोग होता है|

लोकशब्द का अर्थ सर्वसाधारण जनता से है, जिसकी व्यक्तिगत पहचान न होकर एक सामूहिक पहचान है| इस तरह संस्कृतिजो  आम आदमी के हित में होती है, वह लोक संस्कृति है| लोक संस्कृति वस्तुतः लोक से ही छन-छन कर बनती है| इसलिए जब लीक से हटकर इसकी व्याख्या होने लगती है तो उसकी अनेक बातें असंगत लगती है|

मनुष्य प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है  और मनुष्य का निर्माण उसके  पर्यावरण से होता है| मनुष्य और प्रकृति एक दुसरे का पूरक है| मनुष्य जिस पर्यावरण में रहता है ,उसका व्यवहार, सोच, रहन-सहन ,वेशभूषा, खानपान, भाषा आदि उसीके अनुसार विकसित हो जाती है| यह सभी तत्व मिलकर संस्कृति का निर्माण करते हैं  | इस तरह लोक संस्कृति पर्यावरण की निर्मिति है|

इस लोक संस्कृति में एक लोक साहित्य होता है जो मानव के ह्रदय की भावनाओं को व्यक्त करता है | लोक गीतों और लोक कथाओं में जीवन की सरलतम  अनुभुति मिलती है| जिससे  हमें नैसर्गिक सुख की प्राप्ति होती है |

भारत, खासकर बिहार की लोक संस्कृति बहुत ही समृद्ध रही है| वर्तमान बिहार  में मूल रूप में तीन लोक संस्कृति है- मैथिल, मगही और भोजपुरी| क्रमशः तिरहुत, मगध और भोजपुर के भौगोलिक क्षेत्राधिकार में ये लोक संस्कृतियाँ पल्लवित पुष्पित होती रहीं हैं| इनके अपने-अपने क्षेत्र में स्थानीय विविधता के हिसाब से अनेक उप संस्कृतियाँ भी हैं | 

जानकारी के अनुसार ,बिहार की लोक संस्कृति भारत और विश्व के प्राचीन संस्कृतियों में से एक है| ईशा पूर्व दो हजार साल से पहले ही उत्तर बिहार के मिथिला में विदेह माथवऔर उनके पुरोहित गौतम रहुगनके नेतृत्व में मैथिल लोक संस्कृति की नींव पड़ी थी|

  गंगा के दक्षिण मगध संस्कृति भी कम पुरानी नही है |  नालंदा, बोधगया, राजगृह, चेचर, चेरन्द, पांड, बलिराजगढ़ आदि प्राचीन जगह बिहार प्रान्त के मैथिल, मगही और भोजपुरी लोक संस्कृतियों की प्राचीनता के द्योतक हैं |

इन तीनों संस्कृतियों के लिए  गंगा और उसकी सहायक नदियों ने महती भूमिका का निर्वाह  किया है|  मैथिल लोक संस्कृति में हिमालय का बहुत योगदान है| हालाँकि हिमालयी प्रभाव से  मगध और भोजपुर की लोक संस्कृतियां भी अप्रभावित नहीं है| इस प्रकार बिहार की लोक संस्कृति का आधारभूत तत्व प्रकृति ही है| इसलिए प्रकृति तत्वों को देवी देवताओं के रूप में मानने की यहाँ परम्परा है, जैसे-- पृथ्वी माता, पवन देव, वरुण देव, सूर्य देव, अग्नि देव, ,कुओं में कोइला माता,रोगों की शीतला माता,वर्षा का इंद्र देव| नदियों को माता का दर्जा दिया गया है|

उसी तरह हमारे यहाँ पेड़ों पर प्रतीकात्मक रूप में ब्रह्म और  दैवी शक्ति के वास की आस्था यहाँ के लोक जीवन में रही है| श्री पंचमी( वसंत पंचमी ) के दिन प्रत्येक साल हल की पूजा करके खेती की शुरुआत करने की प्रथा रही है| ‘आर्द्रा नक्षत्र जो एक मुख्य उपयोगी मोनसुनी वर्षा का काल है| उस नक्षत्र में अपने कुलदेवी और  ग्राम-देव की पूजा अर्चना सर्वत्र प्रचलित रहा है|

दूसरी सर्वाधिक महत्वपूर्ण नक्षत्र हथियाजो अगहनी धान के फसल की पूर्णता तथा रबी फसल की शुरुआत के लिए जरुरी है | इस नक्षत्र में नवरात्र का उत्सव हमारी प्रकृति पूजा का ही द्योतक है|  इस तरह प्राकृतिक शक्तियों का दैवीकरण एक विशेषता है|

 अब गीत संस्कृति की बात करते हैं तो इस लोक संस्कृति में गीत और संगीत में यथा --चैता, कजली, बारहमासा, फगुआ, नचारी, समदाउन, बटगवनी, ध्रुपद आदि तथा वाद्य यंत्रों में--- ढोल, मजीरा, झाल, बांसुरी, हारमोनिया, डफली आदि का प्रचलन रहा है|    विलंबित और धीमी गति वाले रागों का चलन रहा है| हालाँकि फगुआ जैसे फ़ास्ट गीत-संगीत भी लोकप्रिय रहें हैं| होली के अवसर पर अश्लील गीत... खासकर भोजपुर के लोक संगीत में यह अभद्रता अधिक सुनने को मिलती है जो निश्चय ही अपसंस्कृति है| यही अपसंस्कृति, लोक संस्कृति के विनाश के अर्थ में लिया जाना लाजिमी है| अपसंस्कृति एक सांस्कृतिक क्षरण ही है|

 

 मिथिला में यहाँ की भित्ति चित्र कला जो आज मिथिला पेंटिंग के नाम से प्रख्यात है, का एक विशिष्ट स्थान रहा है| पहले इसमें प्राकृतिक रंगों जैसे हल्दी, पलाश, सिंगारहार, नील, कारिख आदि का उपयोग होता था| मगर अब इन रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का उपयोग हो रहा है | कागज़. कपड़े और अन्य कई पदार्थों  पर भी यह पेंटिंग बनाकर बजने के लिए बाजार में लाया जाता है | बिहार के लिए यह बड़े गर्व की बात है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिथिला पेंटिंग की पहचान स्थापित हो गयी है |

सामाजिक/पारिवारिक उत्सवों पर संगीत के रूप में जो स्थानीय रसन-चौकी का चलन था, वह अब लुप्तप्राय है| दैनिक हवन की प्रथा लगभग समाप्त है| मगर तुलसी के पौधे  में सबेरे अर्घ्य देने तथा शाम में इसके समीप एक दिया जलाने की परम्परा अभी भी चली आ रही है|  हाँ, पूजा पाठ और मांगलिक कार्यों में  आडम्बर ने अब सादगी का स्थान ले लिया है | धार्मिक स्थलों पर जल,फूल चढाने की परंपरा अधिक मुखर हो गयी है|लेकिन आस्तिकता, शालीनता, अनुशासन और पवित्रता आदि में काफी क्षरण हुआ है|

मैथिली, मगही और भोजपुरी में... मगही साहित्य  और मैथिली साहित्य अधिक समृद्ध है| आज भी ये तीनो लोक भाषाएँ जीवंत हैं, जिनमें लिखना और बोलना हो रहा है| उत्तर भारत में किसी  लोक भाषा का पहला गद्य मैथिली भाषा में  ज्योतिरीश्वर द्वारा रचित  वर्णरत्नाकर(१४ वीं सदी) है|

प्राकृतिक तत्वों से भरपूर लोक संस्कृति अभी भी बाकी है लेकिन इनमें इतने अधिक परिमाण में ख़राब तत्वों ने स्थान बना लिया है, जिसके कारण हमारी  संस्कृति से अनेक बार अपसंस्कृति की दुर्गन्ध आने लगती है|

बदलते वैज्ञानिक युग में हमारी लोक संस्कृति, साथ ही अभिजन संस्कृति का भी, स्वरुप धीरे धीरे बदलता जा रहा है| लोक संस्कृति गाँव के खेत ,खलिहान, चौपाल  और प्रवाहमान नदियों के कछेड में थे| भारत का गाँव अपने आप में एक स्वयं पोषित, स्वयं अनुशासित रिपब्लिक होता था |

 बेहद दुःखद बात है कि गुलामी के काल में  पहले ही भारतीयता की जड़ और  देसी उद्योग धंधों को चौपट कर दिया गया| आजादी के बाद भी भारतीय सनातनता और प्राचीन ज्ञान परम्परा पर अपेक्षित जोर नहीं दिया गया| कमजोर भारतीय सनातनता में लोक संस्कृति में क्षरण स्वाभाविक हैं| गाँव अब शहर बनते जा रहे हैं | शिल्प और कला अब उद्योग बन गया है | खेती का तौर तरीका बदलता गया |  डीजल,पेट्रोल ने यातायात के साधनों में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया है|

गाँव की रिपब्लिक अब ख़त्म हो चुकी है| वैश्वीकरण के इस  दौर में विश्व एक ग्लोवल विलेज बनता जा रहा है| सिनेमा, टीवी, मोबाइल आदि का बोलबाला बढ़ गया है | बिहार सहित समूचे भारत के लोक संस्कृतियों में यह वैश्विक संस्कृति  प्रवेश कर गया है |  जिसके  दुष्प्रभाव   के कारण हमारी सांस्कृतिक विविधता का क्षरण हुआ है ,वहीं दूसरी तरफ विदेशी सांस्कृतिक रंगों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है|

इसलिए  बिहार की लोक संस्कृति में  भी आमूलचूल परिवर्तन होता नजर आ  रहा है| उदाहरण स्वरूप सल्हेश, बरहम बाबा, भगैती आदि पूजा अभी भी चलन में है, लेकिन अब इनमें आधुनिक गजेट्स का भरपूर उपयोग हो रहा है|  जो अनेक स्थलों पर पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए घातक है|विज्ञानं और तकनीक के अंधाधुन उपयोग ने न सिर्फ प्राकृतिक उत्पादकता का नाश किया है बल्कि ढेरों समस्याएं उत्पन्न कर दी है| इस तरह सांस्कृतिक प्रदुषण के अनेक आयाम हैं|

अतः  बिहार की लोक संस्कृति में प्रदुषण का दुष्प्रभाव गंभीर चिंता का विषय है |

 

             मिन्नी मिश्रा /पटना

              स्वरचित  

 

Monday, July 27, 2020

एक नदी की व्यथा 💐

*कौशिकी *

 पति ने शाप देकर मुझे मानव से नदी बना दिया ! क्या कसूर था मेरा ? यही न कि मैं अन्य लड़कियों की अपेक्षा अधिक चंचल थी ! लडकियों का अधिक चंचल होना कोई गुनाह होता है क्या ? पिता के घर में सबकी दुलारी चहकती, फुदकती मैं ‘सत्यवती’ के नाम से जानी जाती थी |परन्तु ससुराल आकर मैं चंचल होने के कारण छिनाल कहलाने लगी | इसी चंचलता की वजह से यहाँ कोई मुझे पसंद नहीं करता !इसलिए मैं हमेशा दुखी रहती ! मैं दिन भर खटती हूँ ,इनके लिए इंधन-पानी जुटाती हूँ ...वो इन्हें दिखाई नहीं देता ! मैं चंचल हूँ सो इन्हें नहीं सुहाता !अरे..मुझे चाहरदीवारी में कैद कर दोगे तो मर जाऊँगी! बहू की पीड़ा को कौन समझता ! सभी गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं मुझे ! पर, मैं अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकती ! लक्ष्मी चंचला होती है, लेकिन देखो, सब उन्हें पूजते हैं और मुझे...उफ़्फ़! यहाँ सब कुलटा समझते हैं!

धीरे-धीरे मैं पति के कोपभाजन का शिकार होती चली गई | उन्होंने शाप देकर... मुझे सुदूर उत्तर-पूरब हिमालय के कछेड़, अनार्य प्रदेश में ‘कौशिकी’ नदी बनाकर भेज दिया | ’आर्य कुल’ के ‘गाधि कौशिक’ ... मेरे पिता ,बड़े प्रतापी राजा थे और मेरा भाई... ‘विश्वामित्र’ क्रांतिकारी ऋषि | माता-पिता की अचानक मृत्यु होने के पश्चात भाई से मुझे भरपूर प्यार मिला | दुलार से वह मुझे परी बहना कहते थे | उन्होंने मुझे माता-पिता की तरह ना केवल योग्य बनाया अपितु मेरे ख्वाइशों को पूरा किया |व्यस्क होते ही भाई ने मेरी शादी संस्कारी कहलाने वाले आर्य ऋषि से कर दी | पर, काल के लम्बे हाथ से कोई अछूता कहाँ रहता ! शादी क्या हुई...जैसे मेरी किस्मत में ग्रहण लग गई !

“अरे...बहना तुम रोती क्यों हो ....मैं हूँ ना ...! मुझे जैसे ही पता चला, मैं भागा-भागा तेरे पास आ गया हूँ |अब यहाँ कोई तेरा बाल बांका नहीं करेगा | भला हुआ जो तुम अपने उस आततायी पति के चंगुल से मुक्त हो गई | उसे आर्यऋषि होने का बहुत घमंड है | मैं प्रण लेता हूँ कि अपने बहनोई, अर्थात् तुम्हारे पति ... महर्षि भृगु के पुत्र ‘रिचिक’ का दंभ तोड़ कर ही चैन की सांस लूँगा | तू चिंता मत कर, अनार्य लोग अज्ञानी जरुर हैं, पर कुटिल नहीं | ये लोग दिल के बहुत भोले होते हैं | इन अनार्यों को आर्य के समान मैं शिक्षित करूँगा ,उनको समाज में पूरा सम्मान दिलाऊँगा | तुम्हारे तट पर ही उनकी शिक्षा-दीक्षा संपन्न होगी | तुम्हारे जल से सभी परिमार्जन करेंगे | परित्यक्ता अनार्यों को और तुम्हें भी फिर कोई हेय दृष्टि से कभी नहीं देखेगा | इस धरा पर तुम्हारी पूजा होगी, वेदों ,शास्त्रों में तुम्हारी चर्चा होगी | इस तरह तुम हमेशा के लिए अमर हो जाओगी | “

अचानक...भाई की आवाज सुनकर मैं चौंक गई | इस अनार्य प्रदेश में नदी के वेश में मुझे देखकर कौन बहना कहकर पुकार रहा है ? कहीं मेरे मन का भ्रम तो नहीं है ? पीछे मुड़कर देखी, भाई मेरे सामने पर खड़ा था | हाँ..वह त्रिकालदर्शी है, इसलिए मुझे इस रूपांतरित वेश में भी पहचान लिया | ख़ुशी से मैं झूम उठी और झट उनके चरणों से जा लिपट गई | उन्होंने मुझे उठाया..हृदय से लगाया, फिर अंजुली में भरकर आचमन किया | तत्पश्चात पितरों का तर्पण करने लगे | मैं मौन एकटक सब देखती रही| मेरे मन से सारे दुःख, क्लेश अब मिट गये | पहले की तरह मैं निडर होकर कल-कल, छल-छल करके फिर से मचलने लगी और पास बहते अपने नये मित्र ‘ब्रह्मपुत्र’ नदी से सारी बातें कहने के लिए उताहुल हो चल पड़ी |


फिर क्या था ! देखते-देखते ... अनार्य (किरात,मत्स्य,भील, कोच आदि ) जंगली समुदायों को आर्य की भांति सुसभ्य और संस्कारी बनाने का लिया गया प्रण विश्वामित्र द्वारा शुरू हो गया | इस तरह कालांतर में जंगली समुदायों द्वारा उत्तर-पुरबी(पूर्णिया) बिहार से ब्रह्मपुत्र तक... ‘कौशिकी-मत्स्य’ संस्कृति खड़ी की गई | बस, उसी समय से मेरा भाई विश्वामित्र, ‘राजर्षि’ से ‘ब्रह्मर्षि’ कहलाने लगे | और मैं,धीरे-धीरे खिसक कर पश्चिम (पुर्णिया-कटिहार ) की ओर बहने लगी | इसी क्रम में मेरी मुलाक़ात ‘गंगा’ नदी से हुई, मैं बहन ‘गंगा’ में समाहित हो गई |

 पति द्वारा अभिशापित ..आज मैं लोगों द्वारा पूजित हो रही हूँ | सच, मैं यह जीवन पाकर ध्न्य-धन्य हो गई |

मिन्नी मिश्रा /पटना 

Thursday, June 4, 2020



* यादें जो दिल को सुकून पहुँचाती है *

लगभग चौंतीस साल पहले की बात है | मैं पति संग पूर्णिया (बिहार) किराए के एक छोटे से मकान में रहती थी | पति वहाँ सरकारी ऑफिस में पोस्टेड थे | उसी मकान में एक और किरायेदार, सोमेश बाबू (नाम बदला हुआ है) सपरिवार रहते थे | उनके परिवार में पाँच लोग --पति-पत्नी और तीन बच्चे थे |

हमारे विवाह का एक ही साल हुआ था | छोटी उम्र और तजुर्बा भी छोटा।नयी गृहस्थी थी मेरी। एक- एक चीज इकट्ठा करके गृहस्थी बसाना सीख रही थी मैं। नई गृहस्थी बसाने में पड़ोसी ने हमारी बहुत सहायता की थी | वे सभी लोग स्वभाव के बहुत मिलनसार थे | धीरे-धीरे हम दोनों के परिवार में बहुत अपनापन हो गया | हमलोग साथ मिलकर पर्व-त्योहार मनाते | इतना ही नहीं, हमारे बीच रूपये-पैसों से लेकर खाद्य पदार्थ का आदान-प्रदान भी हुआ करता था |

कुछ सालों बाद मेरी पहली संतान (बेटी) का जन्म देवघर (झारखंड) में हुआ | वहाँ मेरे माता-पिता रहते थे , मेरे पिताजी वहीं सरकारी सेवा में कार्यरत थे |

बेटी जब तीन महीनें की हो गई, तो उसे लेकर मैं पूर्णिया, पति के पास आ गई | सोमेश बाबू की पत्नी मेरे बेटी को बहुत प्यार करती थी | जब भी मैं घर के कामों में उलझी रहती ,तो बेटी को वो अपने घर ले जाया करती थी | मेरी बेटी घंटों उनके घर रहती | उन चंद घंटो में मेरे शारीर को बहुत आराम मिलता था | सच, छोटे बच्चे को संभालना बहुत ही कठिन कार्य है | खासकर, जब अकेले संभालना पड़े | गोद में लेकर उसे घुमाना , नैपकिन बदलना, दूध पिलाना, कपड़े धोना आदि .. अनगिनत काम!

चुकी, मेरे पति प्रशासनिक सेवा में कार्यरत थे | उनकी डयूटी बहुत कड़ी थी | अक्सर रात को भी उन्हें लॉ एंड आर्डर डयूटी में बाहर जाना पड़ता था |इसलिए चाहकर भी वो घर में समय नहीं दे पाते थे ! लेकिन ईश्वर की कृपा, जो पड़ोसी हमें मिले, वो वाकई बहुत मददगार थे | कभी कोई दिक्कत होता तो मैं उनलोगों को बताती। वो हमारी मदद करते। इसी तरह अच्छे से समय बीत रहा था।

एकदिन , आचानक मध्य रात्री में कॉलबेल बजी | उसकी तीव्र ध्वनी से हमारी निद्रा भंग हो गई | हड़बड़ाकर हमदोनों बिछावन से उठे और किवाड़ी के छेद से बाहर झांककर देखा | सोमेश बाबू को सामने खड़ा देख, चकित रह गये | इतनी रात को यहाँ?! झट दरवाजा खोलकर उन्हें अंदर बुलाया |

वह बहुत घबराए हुए दिख रहे थे | दुखी स्वर में बोले , “ चंदन ( बेटा) का हालत बहुत सीरियस है | उसे शीघ्र डॉक्टर के पास ले जाना है | लेकिन, जाने के लिए कोई सवारी नहीं मिल रही है | आपके पास स्कूटर है, मेरी मदद कीजिए |”

अविलम्ब , चंदन को देखने हमलोग उनके साथ उनके घर गये | वह हांफ रहा था ! उसके दिल की धड़कनें बहुत तेज चल रही थी | इतनी तेज कि जिस पलंग पर सोया था, वह हिल रहा था | उसके मुँह और नाक से खून का बहना जारी था | इतना खून निकला कि तकिया भींग गया ! बच्चे की ऐसी हालत देखकर हमलोग बुरी तरह घबरा गये | पता नहीं ! क्या होगा ?!

फौरन स्कूटर से सोमेश बाबू और चंदन को साथ में लेकर, ये पास वाले नर्सिंग होम चले गये | चंदन को रात भर गहन चिकित्सा कक्ष में रखा गया | इसीजी के साथ उसके कई अन्य टेस्ट भी हुए |

मैं भोर होने का इंतजार करती रही । भोर होते ही... चंदन की मम्मी के संग रिक्शे से हमलोग नर्सिंग होम पहुँच गये | तब तक चंदन को गहन चिकित्सा कक्ष से हटाकर जेनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया था | वह शांत भाव से बेड पर लेटा था।हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर तैर रही थी | उसे सही-सलामत देखकर कहीं से जान में जान आ गई | चलो, अब सब ठीक है।

लेकिन , डॉक्टर के प्रवेश करते ही माहौल गंभीर हो गया | डॉक्टर साहब ने चंदन के पापा को रिपोर्ट दिखलाते हुए कहा, “ चंदन के हार्ट का वाल्व खराब हो चुका है | यहाँ इसका इलाज संभव नहीं है। इसलिए इलाज के लिए एम्स रेफर कर रहा हूँ | जल्द से जल्द इसे ले जाइए |” डॉक्टर की बातें सुनकर हम सभी हतप्रभ रह गये ! अचानक, एक साथ कई सवाल मेरे मन को विचलित करने लगा | बारह साल के इस बालक का अब क्या होगा ?! चंदन और उसके मम्मी-पापा के मायूस चेहरे को देखकर तरस आ रही थी ! पर, नियति को भला कौन टाल सकता है!

उसी दिन नर्सिंग होम से चंदन को छुट्टी मिल गई और उसे लेकर हमलोग वापस घर आ गये | चार दिनों बाद , आननफानन में, चंदन को लेकर उसके मम्मी-पापा इलाज़ के लिए दिल्ली विदा हो गये |

दिल्ली जाने के कुछ ही दिनों पश्चात ....उनका लिखा एक अंतर्देशीय-पत्र आया | उस समय मोबाइल और लैंडलाइन की सुविधा नहीं थी।

उसमें लिखा था---
“ सर,
नमस्ते ,
चंदन की स्थिति ठीक नहीं है | अगले सप्ताह उसका ऑपरेशन होने वाला है | ऑपरेशन के लिए अभी पुरे पैसों का इंतजाम नहीं हो पाया है | कृप्या करके दस हजार रुपया यथाशीघ्र मुझे भेज दीजिये | सदा आपका आभारी रहूँगा |
सोमेश ”

पत्र पढ़कर हम चिंता में पड़ गये ! दस हजार रुपया ! तुरंत में कहाँ से इंतजाम करें ?

आज से चौंतीस साल पहले... दस हजार रुपयों का वेल्यु बहुत अधिक होता था | इनकी नौकरी नई थी और वेतन कम था | हमलोगों के पास बैंक बेलेंस के नाम पर कुछ नहीं था | क्योंकि, जो भी वेतन इन्हें मिलता, उसमें से आधे पैसे इन्हें प्रत्येक माह घर भेजना पड़ता था |हाँ, मायके से गहने बहुत मिले थे।

वहाँ (ससुराल ) परिवार बड़ा था। लगभग दस लोग हमेशा रहते थे | गेस्ट का आनाजाना लगा रहता था। मेरे ससुर, शुरुआत में ही चार- पाँच सालों तक संस्कृत के अध्यापक रहे, बाद में नौकरी छोड़ दी। यद्यपि वे संसकृत के महाविद्वान थे | उनके पास उपजाऊ जमीन थी, उपज घर आती थी | लेकिन, इतने बड़े परिवार के भरण-पोषण के लिए वो पर्याप्त नहीं था ! उस समय मेरी तीन ननद और दो देवर स्कूल-कॉलेज में पढ़ रहे थे | ननदों की शादी और देवर के आगे की पढाई , सब बचा हुआ था | इन्हीं कारणों से आर्थिक तंगी लगी रहती थी |

घर की आर्थिक जिम्मेदारी इनके ऊपर बहुत अधिक थी | चुकी ये पदाधिकारी थे, इसलिए घरवालों की अपेक्षाएं इनसे बहुत अधिक रहती थी | अपेक्षा पर खड़े उतरना है, अपना फर्ज समझकर यह जुटे रहते थे।

पर, अभी हमारे सामने जो समस्या आ गई थी, वो अपनों से कम नहीं थी। पड़ोसी के बेटे, एक मासूम की जिंदगी का सवाल था | आखिरकार , गहने गिरवी रखकर हमनें किसी तरह से दस हजार रुपयों का इंतजाम किया और जल्दी से उन्हें भेज दिया | ताकि समय से उन्हें पैसा मिल जाय! उस समय पैसा भेजने के लिए ऑनलाइन की सुविधा नहीं थी, मनीआडर ही एक विकल्प था |

भगवान का लाख-लाख शुक्र, चंदन का ऑपरेशन सफल रहा । कुछ महीनों बाद वे लोग सभी पूर्णिया वापस आ गये | चंदन को सकुशल देखकर हमें अत्यधिक प्रसन्नता हुई | उनके घर में खुशहाली लौट आई | सभी लोग फिर से अपने पुराने दिनचर्या में नये सिरे से जुट गये |

इधर, आर्थिक तंगी रहने के बावजूद भी हमने लिहाज से कभी पैसों का तगादा उनसे नहीं किया और ना ही अपने गहने गिरवी रखकर पैसे भेजने की बात उन्हें बतायी | इसी तरह एक साल बीत गया | बात आई और गई। हमलोग भी अपने गृहस्थी में व्यस्त हो गए। पड़ोसी के साथ, आना-जाना, खाना -पीना सब कुछ पहले की तरह चलने लगा।

एक दिन सोमेश बाबू हमारे घर आये और अपने जेब से पैसे निकाल कर पति के आगे बढाते हुए बोले,
” रख लीजिए। पैसे वापस करने में बहुत विलम्ब हो गया | सच, आपका पैसा यदि मुझे समय पर नहीं मिलता तो मेरा चंदन आज.... “ कहते-कहते उनका गला भर आया ! आँसू छलक पड़े |

उनकी बातें सुनकर इनकी आँखें भी डबडबा गईं ! मैं,वहीं पास खड़ी सब देख, सुन रही थी | मुझसे रहा नहीं गया | मैं सोमेश बाबू से बोली, “ बहुत ख़ुशी की बात है कि चंदन का आपरेशन समय से हो गया । हमारा पैसा भेजना सार्थक हुआ | चंदन को हम अपने बच्चे की तरह प्यार करते हैं। बेकार में आप इतने परेशान हो रहे हैं! हम तो इस प्रकरण के मात्र निमित्त बनें , सब ईश्वर की कृपा है !"

पैसों को हाथ में थामे हुए सोमेश बाबू निःशब्द खड़े रहे, उनके आँखों से निर्मल धारा बहे जा रही थी |

उन बीते समय को यादकर मैं आज भी पुलकित हो जाती हूँ कि ईश्वर ने हमें एक सुनहरा अवसर दिया और हमने उसे शिद्दत से निभाया | कालक्रम में गहने भी गिरवी से छूट कर हमारे पास आ गए। उन गहनों को जब भी कभी देखती हूँ, चंदन का हँसता चेहरा दिख जाता है।

समय का पहिया अविरल घूमता रहा। हमदोनों परिवार अब एक शहर में नहीं रहते हैं ।पर, उनलोगों के साथ बिताये पल ,मधुर यादें बनकर आज भी मुझे सुखद अहसास दिलाती है।

मिन्नी मिश्रा / पटना
मौलिक / अप्रकाशित

Sunday, February 2, 2020

( कहानी )
* जिंदगी कैसी है पहेली * 

न चाहते हुए भी मेरी नजरें बारबार आकाश पर चली जा रही थीं | आज वह अकेले बेड पर पड़ा सामने दीवार को एकटक देख रहा था |

इस तरह आकाश को मैंने कभी अकेले नहीं देखा ! छोटे शिशु की तरह उसके माता-पिता हमेशा उसे घेर कर रहते थे | क्या हुआ ..जो दोनों में से कोई नहीं हैं ?
दिल धक्क से रह गया ! मन में अनगिनत विचार हिलोर मारने लगें -- "माँ-बाप का इकलौता बेटा, कैंसर के थर्ड स्टेज में यहाँ लाया गया था ! उसे गले का कैंसर था ... होस्पिटलाइजड होने के तुरंत बाद उसका ऑपरेशन हुआ ! स्थिति बेहद चिंताजनक बनी रहने के कारण वह आज एक महीने से आइ.सी.यू. में‌ भर्ती है |

सबको मालूम है, आइ.सी.यू के मरीज सीरियस होते हैं । पर, कैंसर की भयानक पीड़ा ...बेहद पीड़ादायक, असहनीय, अकल्पनीय होती है ! माना इस वैज्ञानिक युग में नयी-नयी दवाईयों का अविष्कार होते रहता है | फिर भी कैंसर का नाम सुनते ही मृत्यु का खौफ आँखों के सामने तांडव करना शुरू कर देता है | 

नित्य कितने मरीज यहाँ आते-जाते हैं | पर न जाने क्यूँ... आकाश से मुझे बेहद अपनापन हो गया है, 
सच कहूँ तो..........प्यार !

'तीस-पैंतीस वर्ष का भोला भाला आकाश ... क्षीण, कृशकाय शरीर, आँखें धसी हुई , फिर भी जीने का अदम्य उत्साह देखते ही ‌बनता है। ' इन्हीं ख्यालों में विस्मृत... कदम बढ़ाते हुए मैं उसके बेड के पास आ पहुँची ! जैसे ही उससे नज़रें मिली हल्की सी मुस्कान उसके पीत चेहरे पर बासंती छटा लिए बिखर गई |

” आकाश कैसे हैं ? उठिए, बी.पी. चेक करती हूँ |” मैं उसके कंधे को थपथपाते हुए बोली।

हाथ आगे बढ़ाकर वह आहिस्ते से बोला, “वसुधा ! आज पहली बार मुझे अकेलेपन से भय लगने लगा था ! जैसे ही आपको देखा, बहुत अच्छा लगा। घबराहट दूर हो गई। इतने दिनों से आपने मेरी बहुत सेवा की है । तभी तो अब मैं चलने -फिरने के लायक हो गया हूँ। किस मुँह से आपको धन्यवाद कहूँ , समझ में नहीं आ रहा है ! “

“अरे... क्या कह रहे हैं आप? मैं नर्स हूँ , नर्स का यही कर्तव्य होता है |जल्दी बताइए आंटी और अंकल कहाँ गये ? ”

“ अभी थोड़ी देर पहले डॉक्टर राउंड पर आये थे | उन्होंने मेरा चेकअप किया। मुस्कुराते हुए वो पापा से बोले - " आपलोग बहुत भाग्यशाली हैं, आपका बेटा अब खतरे से बाहर हो गया है । इसे लेकर आप घर जा सकते हैं | जाने से पहले एकबार मेरे चैम्बर में आकर मिल लीजिये |" इसलिए मम्मी-पापा अभी वहीं गये हैं |” इतना कहकर आकाश नम आँखों से मुझे एकटक देखने लगा | 

मैं उसके बालों को सहलाते हुए बोली , “ आपको मायूस देख मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है| याद है ना? आपने एकबार मुझसे पूछा था, “वसुधा, आपके घर में कौन कौन हैं ?”

मेरा जवाब था , “कोई नहीं !” 

फिर आपने पूछा , “तुम्हारे माता-पिता...भाई या पति... ?!”  इस प्रश्न ने मुझे विचलित कर दिया | कुंठित भावनाओं के आवेग को मैं अधिक रोक नहीं पाई | अवरोध के सारे द्वार मानो एक एक कर मन में खुलते गये। 

दफ़न हो चुकी बातें ..................... 

"शादी के तीन-चार महीने बाद, मैं अपने पति और सास के साथ ड्राइंग रूम में टीवी देख रही थी | तभी टीवी में प्रचार दिखाई ‌पड़ा | बताया जा रहा था...'एड्स न तो छुआछूत की बीमारी है और ना ही असाध्य रोग | समय पर सही इलाज हो जाने से इस रोग से मुक्ति मिल जाती है |' इतना सुनते ही मैं आवेश में आकर बोल पड़ी , “हाँ..मेरी माँ को एड्स था । पापा ने बहुत इलाज करवाया | जल्द ही माँ को‌ इस बीमारी से मुक्ति मिल गई । घर में दादी के खुशी का ठिकाना नहीं रहा | उसकी इकलौती बहू स्वस्थ जो हो गयी। अब उनके खानदान को एक नया‌ नन्हा चिराग़ मिलेगा।

उस दिन से दादी अनगिनत देवी-देवताओं के आगे पोता-पोती का खाव्ब लिए मन्नतें मांगने लगीं | आखिर, एक दिन , किसी फकीर ने दादी को अरहूल का फूल और एक ताबीज दिया | वह दादी से बोला, “ पूर्णिमा के दिन, अहले सुबह इस फूल को पीसकर ... अपने बहू, बेटे को खाली पेट पिला दीजियेगा | निश्चित रूप से उन्हें संतान सुख प्राप्त होगा | लेकिन... आपको एक बात का खास ध्यान रखना है । यह ताबीज उस बच्चे को छट्ठी के दिन ही गले में डालना है | ताबीज के पहनने के बाद शिशु जीवन पर्यन्त निरोग रहेगा । उसी दिन से से यह ताबीज मेरे गले में है।"

............. एक-एक कर  जहन से बाहर आने लगें ।

इतना सुनते ही पति और सास का पारा सात आसमान पर चढ़ गया। सास जोर से गरजने लगी, “अरी...ओ करमजली, तुझे इसी घर में आना था‌ ?मेरा भाग्य फूटा जो मैंने अपने बेटे को गंदे खून से रिश्ता जोड़ दिया! छी: छी: ये लड़की मेरे कुल को भी गंदा कर देगी ! बेटा, इसे अभी बाहर निकाल |" अपनी माँ की आदेशात्मक स्वर सुनते ही पति भी मुझे खरी- खोटी सुनाने लगें | 

दिनभर कोहराम मचा रहा | उनलोगों ने मुझे रात में भी नहीं बक्शा | रात भर मुझे और मेरे कुल-खानदान को गालियाँ देते रहें | मैं रोती-बिलखती विनती करती रही, “ ऐसा कुछ भी नहीं है, आपलोग मुझ पर विश्वास कीजिये...। मेरा ब्लड टेस्ट करवाइए। अभी ले चलिए डाक्टर के पास।” 

पर, सब व्यर्थ! मेरे लाख हाथ-पैर जोड़ने के बावजूद उनदोनों पर कोई असर नहीं हुआ | अकेली, भूखी-प्यासी.. रात भर मैं अपने कमरे में बिलखती रही और दादी को कोसती रही | दादी ने मुझे क्यों नहीं बताया? उन्होंने जब माँ की बीमारी के बारे में मुझे बताया था, उसी समय उन्हें यह भी बताना चाहिए ... कि ' यह दुनिया बहुत जालिम है ,भोलेपन को कुचल कर रख देती है |' 

सच , भोलेपन की इतनी बड़ी सजा हो सकती है ?! मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था ! " तभी , अचानक अंदर की मरमरी सी आग दिल में धू धू कर दहकने लगी और घायल स्वाभिमान फुफकारते हुए मुझ पर हमला करने लगा |‌मैं विचलित हो गयी।उसी क्षण मैंने तय कर लिया , इस घर को छोड़ देने में भला है | जहाँ इज्जत नहीं मिले वह घर कैसा ! ?

क्रोध और आक्रोश से छटपटाती , एक बैग में अपने कुछ जरूरी कागजात, गहने और कपड़े को मैंने रख लिया । पौ फटने के साथ ही मेरा पैर उस घर के दहलीज को लांघ गया | 

पति और सास दोनों मुझे बगल वाले कमरे से देख रहे थे । पर, उन्होंने मुझे बाहर जाने से नहीं रोका | उल्टे, सास अपने बेटे से कहने लगी, “ जाने दे इसे ... न इसके कुल का ठिकाना है और न ही बिरादरी का पता ! कलंकनी है ये! इन तीखी आवाजें को सुनते ही मेरे कदम ने तेज रफ्तार पकड़ ली। मैं अनजान पथ पर चल पड़ी | 

अंदर मन में घोर बवंडर मचा था , 'मेरी खुद की जिन्दगी है अपने हिसाब से अब जीना है | ' माँ बाप के ऊपर बोझ बनना मेरे स्वाभिमानी मन को स्वीकार नहीं था |इसलिए मायके जाना उचित नहीं समझी। चुकी मैं ग्रेजुएट थी , सो किसी दूसरे शहर में रहकर पढ़ाई करने का प्रण मन में ठान लिया और ऐसा ही किया।

कालांतर में माता-पिता को मैंने फोन से सब कुछ बता दिया ।जानकर वो बहुत व्यथित हो गये | अविलंब पति और सास से संपर्क कर बिगड़ी बातों को सुलझाने का भरसक प्रयत्न करने लगे । पर , सब व्यर्थ निकला ! ससुराल वाले मेरे माता-पिता से अधिक समर्थ थे, इसलिए पलड़ा उन्हीं का हमेशा भारी रहा।

अंत में हार- थककर, मेरे माता-पिता मुझे अपने पास ले जाने के लिए पहुँच गए। अपने साथ रहने का बहुत जिद्द किया। पर, मैं मायके रहने नहीं गई !‌ मेरा स्वाभिमान झुकने का नाम नहीं ले रहा था, मैं जिद्द पर डटी रही | 

एक संकल्प था मन‌ में---अपने बलबूते पर अब जिंदगी को सार्थक करना है | लेकिन इस जद्दोजहद में मेरे सारे गहने बिक गये। आखिर बच्चों को ट्यूशन पढाकर, मैंने नर्स का कोर्स किया और अंततोगत्वा इसी हॉस्पिटल में नर्स बहाल होकर आ गई | 

आज चार सालों से यहाँ लोगों की सेवा कर रही हूँ | मरीज की सेवा करके जो आनंद मिलता है... आकाश आपको मैं बता नहीं सकती ! अद्भुत, आत्मीय सुख की प्राप्ति होती है। अब जिन्दगी को जीने के प्रति मेरा नजरिया बदल गया है | "

यह सब सुनकर उस दिन आप कितने खुश हो गये थे!? याद है न ? आपके मुँह से अनायास निकल गया , “ वसुधा, यदि मुझे कैंसर जैसी बीमारी नहीं होती तो.... मैं आपसे शा .......|” इतना कहकर अपने चुप्पी साध ली। आजतक आगे कुछ नहीं कहा।

ठीक उसी दिन से मैं आपसे मन ही मन प्यार करने लगी थी । खैर!
आज आप घर जाने वाले हैं ,इसलिए मैं आपको कुछ देना चाहती हूँ । लीजियेगा ना ...?” मेरी प्रश्न भरी निगाहें आकाश के हाव भाव को परखने लगी। 

“जल्दी दो |” मेरे आगे हाथ फैलाते हुए वह तपाक से बोले। 
अपने गले से ताबीज खोलकर आकाश को मैं अभी दे‌ रही थी .... कि तभी आंटी को समीप आते देखा | मुट्ठी में ताबीज दबाये, मैं स्तब्ध ,सहमी खड़ी रही | 

“ अरे, वसुधा, घबराओ नहीं । मैं बाहर दरवाजे पर लगे परदे की ओट से तुमदोनों को देख रही थी | “ आंटी मेरी आँखों में आँखें गड़ाकर बोली | 

“ओह ! माँ, तुम... भी !? वसुधा मेरा बी.पी. चेक करने आई थी,आपलोगों को नहीं देखी तो मुझसे पुछने लगी।" आकाश अपनी बातों से माँ को कन्विंस करना चाहा। 

पर आंटी मुझसे कहती रहीं,

“ वसुधा सुनो , आज मैं बेहद खुश हूँ। मेरे बेटा अब खतरे से बाहर है। हमलोग अभी अस्पताल से घर जाने वाले हैं | मुझे तुम पर पूरा भरोसा है, यदि तुम इसीतरह आकाश की देखभाल करती रही तो मेरा बेटा जल्द ही पूर्ण स्वस्थ हो जाएगा | आकाश ने मुझे तुम्हारे बारे में पहले ही सब बता दिया था | तुम्हारी पिछली जिन्दगी से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है | मैं, एक माँ जरूर हूँ...पर, एक स्त्री भी। मेरे अंदर एक स्त्री का दिल धड़कता है | 

वसुधा, कहने से मैं हिचक रही हूँ। फिर भी अपने दिल की बात आज तुमसे कह देना चाहती हूँ । अब तक मेरी नजरों से तुमदोनों का प्यार छिपा नहीं रहा | मैं इतने दिनों से चुपचाप सब देख रही थी । यदि तुम आकाश की धर्मपत्नी बनना सहर्ष स्वीकार करोगी तो हमलोग जीवनपर्यंत तुम्हारे ऋणी रहेंगे | यह मेरा निवेदन है, फैसला अब तुम्हें करना है |“ 

आंटी की नम आँखें मुझसे जवाब मांग रही थीं, उनकी आँखों से आँसु अविरल बहे जा रहे थे। 

मैंने, सिर हिलाकर हामी भर दी | आकाश, हतप्रभ मुझे एकटक देखने लगा | उनकी नजरों में अपना स्थान पाकर मैं धन्य हो रही थी | थोड़ी देर बाद , हम सभी साथ जाने के लिए एक टैक्सी में बैठ गये | 

‘मेरा नया घर..... जीवन की एक नयी सफर.......।’ ऐसे विचार मेरे मन को पुलकित कर रही थी। आनंद के सागर में अभी मैं गोता लगा रही थी कि तभी टैक्सी ने यू टर्न लिया और एक घर के दहलीज पर जाकर रूक गया | दहलीज को पार कर, उस नये घर में प्रवेश करते ही मेरा कुम्हलाया जीवन अपनों के सानिध्य में खिलखिला उठा | 

मिन्नी मिश्रा \पटना 
स्वरचित ©