* बिहार की लोक संस्कृति *
संस्कृति ब्रह्म की
भांति अवर्णनीय है|यह व्यापक है तथा अनेक तत्वों का बोध कराने वाली
जीवन की विभिन्न प्रवृत्तियों से सम्बंधित है|इसलिए विविध अर्थों
और भावों में इसका उपयोग होता है|
‘लोक’ शब्द का अर्थ
सर्वसाधारण जनता से है, जिसकी व्यक्तिगत पहचान न होकर एक सामूहिक पहचान
है| इस तरह ‘संस्कृति’ जो आम
आदमी के हित में होती है,
वह लोक संस्कृति है| लोक संस्कृति वस्तुतः लोक से ही छन-छन कर बनती है| इसलिए जब लीक से हटकर इसकी व्याख्या होने लगती है
तो उसकी अनेक बातें असंगत लगती है|
मनुष्य प्रकृति की
सर्वश्रेष्ठ रचना है और मनुष्य का निर्माण
उसके पर्यावरण से होता है| मनुष्य और प्रकृति एक दुसरे का पूरक है| मनुष्य जिस पर्यावरण में रहता है ,उसका व्यवहार, सोच, रहन-सहन ,वेशभूषा, खानपान, भाषा आदि उसीके अनुसार
विकसित हो जाती है| यह सभी तत्व मिलकर संस्कृति का निर्माण करते
हैं | इस तरह लोक संस्कृति
पर्यावरण की निर्मिति है|
इस लोक संस्कृति में
एक लोक साहित्य होता है जो मानव के ह्रदय की भावनाओं को व्यक्त करता है | लोक गीतों और लोक कथाओं में जीवन की सरलतम अनुभुति मिलती है| जिससे
हमें नैसर्गिक सुख की प्राप्ति होती है |
भारत, खासकर बिहार की लोक संस्कृति बहुत ही समृद्ध रही
है| वर्तमान बिहार
में मूल रूप में तीन लोक संस्कृति है- मैथिल, मगही
और भोजपुरी| क्रमशः तिरहुत, मगध और
भोजपुर के भौगोलिक क्षेत्राधिकार में ये लोक संस्कृतियाँ पल्लवित पुष्पित होती
रहीं हैं| इनके अपने-अपने क्षेत्र में स्थानीय विविधता के
हिसाब से अनेक उप संस्कृतियाँ भी हैं |
जानकारी के अनुसार ,बिहार की लोक संस्कृति भारत और विश्व के प्राचीन
संस्कृतियों में से एक है|
ईशा पूर्व दो हजार साल से पहले ही उत्तर बिहार के
मिथिला में ‘विदेह माथव’ और उनके पुरोहित ‘गौतम रहुगन’ के नेतृत्व में
मैथिल लोक संस्कृति की नींव पड़ी थी|
गंगा के दक्षिण मगध संस्कृति भी कम पुरानी नही
है | नालंदा, बोधगया, राजगृह, चेचर, चेरन्द, पांड, बलिराजगढ़ आदि
प्राचीन जगह बिहार प्रान्त के मैथिल, मगही और भोजपुरी
लोक संस्कृतियों की प्राचीनता के द्योतक हैं |
इन तीनों
संस्कृतियों के लिए गंगा और उसकी सहायक
नदियों ने महती भूमिका का निर्वाह किया है| मैथिल
लोक संस्कृति में हिमालय का बहुत योगदान है| हालाँकि हिमालयी
प्रभाव से मगध और भोजपुर की लोक
संस्कृतियां भी अप्रभावित नहीं है| इस प्रकार बिहार की
लोक संस्कृति का आधारभूत तत्व प्रकृति ही है| इसलिए प्रकृति
तत्वों को देवी देवताओं के रूप में मानने की यहाँ परम्परा है, जैसे-- पृथ्वी माता, पवन देव, वरुण देव, सूर्य देव, अग्नि देव, ,कुओं में कोइला माता,रोगों की शीतला माता,वर्षा का इंद्र देव| नदियों को माता का दर्जा दिया गया है|
उसी तरह हमारे यहाँ
पेड़ों पर प्रतीकात्मक रूप में ब्रह्म और दैवी शक्ति के वास की आस्था यहाँ के लोक जीवन
में रही है| श्री पंचमी( वसंत पंचमी ) के दिन प्रत्येक साल हल
की पूजा करके खेती की शुरुआत करने की प्रथा रही है| ‘आर्द्रा’ नक्षत्र जो एक मुख्य उपयोगी मोनसुनी वर्षा का
काल है| उस नक्षत्र में अपने कुलदेवी और ग्राम-देव की पूजा अर्चना सर्वत्र प्रचलित रहा
है|
दूसरी सर्वाधिक
महत्वपूर्ण नक्षत्र ‘हथिया’ जो अगहनी धान के फसल
की पूर्णता तथा रबी फसल की शुरुआत के लिए जरुरी है | इस
नक्षत्र में नवरात्र का उत्सव हमारी प्रकृति पूजा का ही द्योतक है| इस तरह प्राकृतिक
शक्तियों का दैवीकरण एक विशेषता है|
अब गीत संस्कृति की बात करते हैं तो इस लोक
संस्कृति में गीत और संगीत में यथा --चैता, कजली, बारहमासा, फगुआ, नचारी, समदाउन, बटगवनी, ध्रुपद आदि तथा
वाद्य यंत्रों में--- ढोल, मजीरा, झाल, बांसुरी, हारमोनिया, डफली आदि का प्रचलन रहा है| विलंबित और धीमी गति वाले रागों का चलन रहा है| हालाँकि फगुआ जैसे फ़ास्ट गीत-संगीत भी लोकप्रिय
रहें हैं| होली के अवसर पर अश्लील गीत... खासकर भोजपुर के
लोक संगीत में यह अभद्रता अधिक सुनने को मिलती है जो निश्चय ही अपसंस्कृति है| यही अपसंस्कृति, लोक
संस्कृति के विनाश के अर्थ में लिया जाना लाजिमी है| अपसंस्कृति
एक सांस्कृतिक क्षरण ही है|
मिथिला
में यहाँ की भित्ति चित्र कला जो आज मिथिला पेंटिंग के नाम से प्रख्यात है, का एक विशिष्ट स्थान रहा है| पहले इसमें प्राकृतिक रंगों जैसे हल्दी, पलाश, सिंगारहार, नील, कारिख आदि का उपयोग
होता था| मगर अब इन रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का
उपयोग हो रहा है | कागज़. कपड़े और अन्य कई पदार्थों पर भी यह पेंटिंग बनाकर बजने के लिए बाजार में
लाया जाता है | बिहार के लिए यह बड़े गर्व की बात है कि
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिथिला पेंटिंग की पहचान स्थापित हो गयी है |
सामाजिक/पारिवारिक
उत्सवों पर संगीत के रूप में जो स्थानीय रसन-चौकी का चलन था, वह अब लुप्तप्राय है| दैनिक हवन की प्रथा लगभग समाप्त है| मगर तुलसी के पौधे में सबेरे अर्घ्य देने तथा शाम में इसके समीप एक
दिया जलाने की परम्परा अभी भी चली आ रही है| हाँ, पूजा पाठ और
मांगलिक कार्यों में आडम्बर ने अब सादगी
का स्थान ले लिया है | धार्मिक स्थलों पर जल,फूल चढाने की परंपरा अधिक मुखर हो गयी है|लेकिन आस्तिकता,
शालीनता, अनुशासन और पवित्रता आदि में काफी क्षरण हुआ है|
मैथिली, मगही और भोजपुरी में... मगही साहित्य और मैथिली साहित्य अधिक समृद्ध है| आज भी ये तीनो लोक भाषाएँ जीवंत हैं, जिनमें लिखना
और बोलना हो रहा है| उत्तर भारत में किसी लोक भाषा का पहला गद्य मैथिली भाषा में ज्योतिरीश्वर द्वारा रचित ‘वर्णरत्नाकर’ (१४ वीं सदी) है|
प्राकृतिक तत्वों से
भरपूर लोक संस्कृति अभी भी बाकी है लेकिन इनमें इतने अधिक परिमाण में ख़राब तत्वों
ने स्थान बना लिया है, जिसके कारण हमारी संस्कृति से अनेक बार अपसंस्कृति की दुर्गन्ध
आने लगती है|
बदलते वैज्ञानिक युग
में हमारी लोक संस्कृति, साथ ही अभिजन संस्कृति का भी, स्वरुप धीरे धीरे बदलता जा रहा है| लोक संस्कृति गाँव के खेत ,खलिहान, चौपाल और प्रवाहमान नदियों के कछेड में थे| भारत का गाँव अपने आप में एक स्वयं पोषित, स्वयं अनुशासित रिपब्लिक होता था |
बेहद
दुःखद बात है कि गुलामी के काल में पहले
ही भारतीयता की जड़ और देसी उद्योग धंधों को चौपट कर दिया गया| आजादी के बाद भी भारतीय सनातनता और प्राचीन ज्ञान
परम्परा पर अपेक्षित जोर नहीं दिया गया| कमजोर भारतीय सनातनता में लोक संस्कृति
में क्षरण स्वाभाविक हैं| गाँव अब शहर बनते जा रहे हैं | शिल्प और कला अब उद्योग बन गया है | खेती का तौर तरीका बदलता गया | डीजल,पेट्रोल ने यातायात के साधनों में आमूलचूल परिवर्तन
ला दिया है|
गाँव की रिपब्लिक अब
ख़त्म हो चुकी है| वैश्वीकरण के इस दौर में विश्व एक ग्लोवल विलेज बनता जा रहा है| सिनेमा, टीवी, मोबाइल आदि का बोलबाला बढ़ गया है | बिहार सहित
समूचे भारत के लोक संस्कृतियों में यह वैश्विक संस्कृति प्रवेश कर गया है | जिसके दुष्प्रभाव
के कारण हमारी सांस्कृतिक विविधता
का क्षरण हुआ है ,वहीं दूसरी तरफ विदेशी सांस्कृतिक रंगों का
प्रभाव बढ़ता जा रहा है|
इसलिए बिहार की लोक संस्कृति में भी आमूलचूल परिवर्तन होता नजर आ रहा है| उदाहरण स्वरूप
सल्हेश, बरहम बाबा, भगैती आदि पूजा अभी
भी चलन में है, लेकिन अब इनमें आधुनिक गजेट्स का भरपूर उपयोग हो रहा है| जो अनेक स्थलों पर पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए
घातक है|विज्ञानं और तकनीक के अंधाधुन उपयोग ने न सिर्फ
प्राकृतिक उत्पादकता का नाश किया है बल्कि ढेरों समस्याएं उत्पन्न कर दी है| इस
तरह सांस्कृतिक प्रदुषण के अनेक आयाम हैं|
अतः बिहार की लोक संस्कृति में प्रदुषण का
दुष्प्रभाव गंभीर चिंता का विषय है |
मिन्नी मिश्रा /पटना
स्वरचित
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