कहानी
* विदेह की वैदेही *
जब जनक की धीया ने राम के गले में जयमाल पहनाई... अंबर से पुष्पवर्षा होने लगी ,दिग-दिगंत जयजयकार करने लगा | मिथिला रीति-रिवाज के अनुसार विवाह समापन हुआ | पंडाल में बैठे गणमान्यों के बीच मिथिला नरेश ‘जनक’ और अयोध्या नरेश ‘दशरथ’... दोनों समधी काफी प्रसन्न दिख रहे थे | एक को धनुर्धर दामाद मिला तो दुसरे को सुयोग्य,कुल-शील वाली पुत्रवधू | हवा ने अब दूसरा रुख कर लिया | कल से बज रही रशनचौकी की सरस, मोहक धुन ... आज भोर होते ही बदल गई | राजमहल के परिसर में चल रहे विवाह के धूम-धड़ाके शांत दिखने लगे | सभी प्रान्तों से विवाह में शामिल होने आये गणमान्य और राजा-महाराजा वापस प्रस्थान करने को तैयार हो रहे थे |
बाहर, दरवाजे पर प्रतीक्षारत सभी आगंतुकों के वाहन चालक अपने-अपने वाहनों को दुरुस्त करने में व्यस्त हो गये | इधर प्रांगण में महिलायें, जो अभी तक विवाह के मोहक गीत गा रहीं थीं, वो अब सीता के ससुराल जाने की तैयारियों में जुट गईं | प्रांगण में अकेला खड़ा, सुसज्जित विवाह-मंडप, उदास होकर ... साक्षी भाव से सबकुछ देख रहा था |
कुछ महिलायें कोहबर...( जहाँ विवाह के समय लौकिक रीतियाँ की जाती है तथा वर-वधु का विश्रामकक्ष होता है)... से सीता-राम को लेकर भगवती घर की ओर चल पड़ीं | दशरथनंदन श्रीराम, सीता की कनिष्ठिका पकड़कर महिलाओं के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे | उनके पीछे-पीछे सखी-सहेलियाँ ‘बटगवनी’( वर-वधू को एकसाथ ले जाने का गीत ) गाते हुए चल पड़ी | सामने भगवती घर के देहरी पर खड़ी सुनयना, विष्णु तुल्य जमाता को बेटी संग आते देख भाव-विभोर हो रहीं थीं | इतने में श्रीराम की नजर सासू माँ पर पड़ी... सकुचाते हुए श्रीराम ने अपनी नजरें झुका ली | इस अलौकिक पल का साक्षी बन रहा अंबर मदमस्त हो उठा | अरुणोदय की लालिमा राजमहल में बिखरने लगी | पक्षी चहकने लगे , दशों-दिशाओं में सुंदर बयार बहने शुरू हो गये | वातावरण सुरम्य लगने लगा |
सभी महिलायें... वर-वधु को लेकर भगवती घर पहुँच गईं | अड़हुल, गुलाब, अपराजित, कनेर आदि फूलों से किया गया कुलदेवी का श्रृंगार, अप्रतिम दिख रहा था , वातावरण में धुप-दीप का सुगंध व्याप्त था | इसी बीच माता सुनयना, बेटी-दामाद के समीप जाकर उन्हें कुलदेवी को प्रणाम करने का इशारा करती हैं | आदेश पाते ही... नवदंपती कुलदेवी के आगे हाथ जोड़कर बैठ गये | अद्भुत, नयनाभिराम नजारा ! इन जोड़ों को देखकर वहाँ उपस्थित सभी मंत्रमुग्ध हो गए। चम्पई रंग की पीताम्बरी , कानों में कुंडल, गले में पुष्पहार , आँखों में काजल, भाल पर तिलक और स्वर्ण मुकुट धारण किये श्रीराम और संग में दुल्हन के रूप में बैठी सीता | सीता का नख-शिख श्रृंगार देखते ही बन रहा था-------- सुर्ख लाल रंग की जड़ीदार पटोर साड़ी , मोती-माणिक्य जड़ित मंगटीका, ओठों को स्पर्श करता हुआ बड़ा सा नथ , वक्षस्थल को छूता हुआ हीरा-मोती का कंठहार, झुमका, बाहों पर रत्न जड़ित बाजूबंद | हाथों में मेहंदी, कलाई पर लाख की चूड़ियाँ ...माणिक्य जड़ित हथसंकर | नक्काशीदार चांदी की करधनी, पैरों में महावर, चांदी के पाजेब, बिछुए | चोटी में गुंथे हुए बेली फूल के गजरे ,मांग में भरा सिंदूर |बालों और चोली को ढकता हुआ हुआ हरे रंग का पारदर्शक जड़ीदार चुन्नी----- देखकर सभी महिलायें भावविभोर होने लगीं |
सच, ऐसे नयनाभिराम जोड़े पृथ्वी पर कभी-कभार ही अवतरित होते हैं ! इसी बीच एक सेविका पास आकर, आम के पल्लव से वर-वधु के ऊपर कुछ छींटने लगी | हींग का तेज गंध एकाएक वातावरण में फ़ैल गया | वहाँ उपस्थित महिलाओं को समझते देर न लगी कि यह नजर उतारने का टोटका है | तभी बाहर से पंडित जी की तेज आवाज , “विदाई का मुहूर्त शरू हो गया .....” सुनते ही सब के सब उदासी हो गये | कुलदेवी के आगे रखे सूप (अनाज फटकने का पात्र) में खोइंछा (धान, दूब, हल्दी का पांच गाँठ ,पांच साबुत सुपारी, सिंदूर और कुछ अशर्फियाँ)..... को उठाने के लिए माता सुनयना जैसे ही आगे बढ़ी...वो फफक पड़ी | उनको रोते देख सभी महिलायें, सखी-सहेलियों के आँखों से आँसू बहने लगे | ’समदौन’ (विदाई गीत ) शुरू हो गया | गीत के साथ महिलाओं के सिसकने की आवाज सुनाई पड़ने लगी | सीता को भावुक होते देख, सुनयना बेहद दुखी हो गई | उसने सीता के आँचल को खोलकर उसमें एक लाल रेशमी टुकड़ा बिछाया तथा सूप में रखे खोइंछा को विधिवत अपने मुठ्ठियों में भरकर उसके आंचल में रखने लगी | सीता के आँखों से आँसू झर-झरकर गिरने लगे | वो एकटक खोइंछा को देख रही थी| बाल्यावस्था से ही वो इस रस्मों को देखते आ रही थी | जब भी कोई महिला नैहर या ससुराल जाती थी तो इसीतरह से खोइंछा देकर माता सुनयना उसे विदा करती थीं | पर, आज, पहली बार सीता को इस रस्म की पीड़ा महसूस हुई | मानो, किसी विकसित तना को उसके जड़ से अलग कर, किसी अन्य बगीचे में उसे लगाया जा रहा हो ! सीता का मन विचलित होने लगा | सुनयना ने खोइंछा को ठीक से बाँधकर उसे सीता के कमर में खोंस दिया | सीता को अब रहा नहीं गया वो माता के सीने से चिपककर सुबकने लगी | सुनयना के धैर्य का बाँध ध्वस्त हो गया ... वो इसतरह से विलाप करने लगी जैसे किसी ने उसके कलेजे के टुकड़े को उससे अलग कर रहा हो | रोते-बिलखते वो बार-बार सीता के माथे को चूमती रहीऔय राम की ओर निरीह भाव से देखती रही |
“वर-वधु को जल्दी से बाहर ले आइये ... |” पंडित जी की तेज आवाज... फिर से सुनाई पड़ी | झटपट सभी महिलायें सीता-राम को साथ लेकर बाहर आ गयीं | वहीँ, कुछ दूरी पर जनक खड़े थे | जैसे इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हों |आखिर , हों... भी क्यों नहीं ! महाप्रतापी अयोध्या नरेश दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र, धनुर्धारी श्रीराम...के संग बेटी को विदा जो कर रहे हैं | एक पिता अपनी पुत्री का हाथ किसी सुयोग्य के हाथों में देकर कितना भार मुक्त और प्रसन्नचित्त हो जाता है, यह जनक के चेहरे से साफ़-साफ़ झलक रहा था | अरे...ये क्या ! जैसे ही वैदेही (सीता) बिलखते हुए उनके नजदीक पहुँची...पिता, विदेह (जनक) अधीर हो उठे | जनक ने सीता को एक अबोध शिशु की भाँती गले से वैसे ही लगा लिया , जैसे वो आज से लगभग उन्नीस साल पहले.............. ......................... ”
अनावृष्टि के निवारणार्थ, यज्ञ के क्रम में जब जनक खेत की कर्मकांड जुताई कर रहे थे, तो उनकी नजर धूल-मिटटी में लिपटी एक नवजात कन्या पर पड़ी | उन्होंने तत्क्षण उसे गोद में उठाकर गले से लगा लिया |” ...... लगाये थे |
पिता, पुत्री को गले से लगाकर जैसे कहीं खो गये........ “सीता के वर चयन हेतु जो स्वयंवर रचा गया , उसमें मैंने शर्त रखा था कि जो कोई शिव के धनुष को भंग करेगा, उसीसे मेरी बेटी सीता का विवाह होगा |”..... और वैसा ही हुआ |
शिव के प्रताप से ही आज यह मनोवांछित कार्य सफल हो पाया | मेरे ऊपर भगवान शिव की साक्षात कृपा थी, तभी तो शिव का धनुष मेरे राजभवन में पूजित और प्रतिष्ठित था ......... श्रीराम के हाथ का स्पर्श होते ही जनक की तन्द्रा भंग हुई | श्रीराम अभी पिता तुल्य जनक के चरण छू रहे थे | जनक चौंक गये ... अविलंब, आशीर्वाद देने की मुद्रा में अपने हाथों को जमाता 'श्रीराम' के मुकुट पर रख दिये |
पर... मुहूर्त का ध्यान आते ही तुरंत बेटी-दामाद को लेकर राजा जनक सीधे आगे बढ़े गये | सीता अभी बच्चों की तरह बिलख रही थी | सुनयना संग सभी महिलायें मिलकर सीता और राम को फूलों से सजे पालकी में बिठाया | पालकी उठते ही पंडित जी जोर से सस्वर मंगलाचरण पाठ करने लगे......... सीता की हृदय विदारक चीख वातावरण में गूंज उठी | समीप खड़े नौकर-चाकर सब के सब भावुक हो गये | हल्के गर्जना के साथ बूंदा-बांदी शुरू हो गई...मानो स्वर्ग से देवता-पितर प्रसन्न होकर नव दम्पति को आशीर्वाद दे रहे हों | सभी गाजे-बाजे के साथ पालकी नजरों से बहुत दूर होती चली गयी ! लेकिन , माता सुनयना और पिता जनक, शून्य आँखों से पालकी को ओझल होने तक एकटक उसे देखते रहे | ...समय, कहाँ.. कभी किसी का इन्तजार करता !वो ---इस अलभ्य कन्या ' विदेह की वैदेही' के ऊपर इतिहास लिखना शुरू कर दिया ....................................................... ...................................................................... “जब आधुनिकता की कोई परिकल्पना नहीं थी, उस कालखंड में वर्ण और गोत्र को आधार मानकर ही समाज का वर्गीकरण हुआ करता था | उस समय राजा जनक ने इस अनाथ कन्या को अपनी पुत्री के रूप में अंगीकार कर लिया था | उन्होंने न केवल अंगीकार किया बल्कि वह कन्या (सीता.).....जनक और सुनयना की प्राणाधार बन गई | उस समय जनक ने तनिक भी विचार नहीं किया कि यह कन्या ....किस कुल --गोत्र की है ? किस वर्ण की है ? किसका खून इसकी रगों में दौड़ रहा है ? उनके मन में बेटा-बेटी में कभी कोई भेद नहीं था | वो समदर्शी थे | उनकी नजरों में मिटटी और स्वर्ण एक समान था | सही मायने में वो ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत को जीना पसंद करते थे | जनक के दरबार में भारतीय कर्मकांड शास्त्र के प्रणेता याज्ञवल्क्य और न्यायदर्शन के प्रणेता गौतम रहा करते थे | राजा होने के बावजूद...सांसारिक मोह-माया, राग-द्वेष, भोग-विलास सभी से वो बिल्कुल परे थे | इसलिए तो समाज ने उन्हें विदेह की उपाधि से अलंकृत किया | इस पृथ्वी पर जनक ही.... एक मात्र विदेह के रूप में जगतविख्यात हुए | ऐसे युगांतरकारी विकास और वैयक्तिकरण के मूल में सिर्फ एक पिता की जिजीविषा थी | इस वर्तमान युग के मानवीय आदर्श और लिबरल विचारधारा से भी अधिक आदर्शवादिता... विदेह ने दिखाई और उनकी पुत्री... वैदेही ने भी ....इस वर्तमान काल के नारी स्शक्तिकरण के उच्चतम पैमाना को
स्थापित करके दिखला दिया "
मिन्नी मिश्रा \ पटना ©
* विदेह की वैदेही *
जब जनक की धीया ने राम के गले में जयमाल पहनाई... अंबर से पुष्पवर्षा होने लगी ,दिग-दिगंत जयजयकार करने लगा | मिथिला रीति-रिवाज के अनुसार विवाह समापन हुआ | पंडाल में बैठे गणमान्यों के बीच मिथिला नरेश ‘जनक’ और अयोध्या नरेश ‘दशरथ’... दोनों समधी काफी प्रसन्न दिख रहे थे | एक को धनुर्धर दामाद मिला तो दुसरे को सुयोग्य,कुल-शील वाली पुत्रवधू | हवा ने अब दूसरा रुख कर लिया | कल से बज रही रशनचौकी की सरस, मोहक धुन ... आज भोर होते ही बदल गई | राजमहल के परिसर में चल रहे विवाह के धूम-धड़ाके शांत दिखने लगे | सभी प्रान्तों से विवाह में शामिल होने आये गणमान्य और राजा-महाराजा वापस प्रस्थान करने को तैयार हो रहे थे |
बाहर, दरवाजे पर प्रतीक्षारत सभी आगंतुकों के वाहन चालक अपने-अपने वाहनों को दुरुस्त करने में व्यस्त हो गये | इधर प्रांगण में महिलायें, जो अभी तक विवाह के मोहक गीत गा रहीं थीं, वो अब सीता के ससुराल जाने की तैयारियों में जुट गईं | प्रांगण में अकेला खड़ा, सुसज्जित विवाह-मंडप, उदास होकर ... साक्षी भाव से सबकुछ देख रहा था |
कुछ महिलायें कोहबर...( जहाँ विवाह के समय लौकिक रीतियाँ की जाती है तथा वर-वधु का विश्रामकक्ष होता है)... से सीता-राम को लेकर भगवती घर की ओर चल पड़ीं | दशरथनंदन श्रीराम, सीता की कनिष्ठिका पकड़कर महिलाओं के साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे | उनके पीछे-पीछे सखी-सहेलियाँ ‘बटगवनी’( वर-वधू को एकसाथ ले जाने का गीत ) गाते हुए चल पड़ी | सामने भगवती घर के देहरी पर खड़ी सुनयना, विष्णु तुल्य जमाता को बेटी संग आते देख भाव-विभोर हो रहीं थीं | इतने में श्रीराम की नजर सासू माँ पर पड़ी... सकुचाते हुए श्रीराम ने अपनी नजरें झुका ली | इस अलौकिक पल का साक्षी बन रहा अंबर मदमस्त हो उठा | अरुणोदय की लालिमा राजमहल में बिखरने लगी | पक्षी चहकने लगे , दशों-दिशाओं में सुंदर बयार बहने शुरू हो गये | वातावरण सुरम्य लगने लगा |
सभी महिलायें... वर-वधु को लेकर भगवती घर पहुँच गईं | अड़हुल, गुलाब, अपराजित, कनेर आदि फूलों से किया गया कुलदेवी का श्रृंगार, अप्रतिम दिख रहा था , वातावरण में धुप-दीप का सुगंध व्याप्त था | इसी बीच माता सुनयना, बेटी-दामाद के समीप जाकर उन्हें कुलदेवी को प्रणाम करने का इशारा करती हैं | आदेश पाते ही... नवदंपती कुलदेवी के आगे हाथ जोड़कर बैठ गये | अद्भुत, नयनाभिराम नजारा ! इन जोड़ों को देखकर वहाँ उपस्थित सभी मंत्रमुग्ध हो गए। चम्पई रंग की पीताम्बरी , कानों में कुंडल, गले में पुष्पहार , आँखों में काजल, भाल पर तिलक और स्वर्ण मुकुट धारण किये श्रीराम और संग में दुल्हन के रूप में बैठी सीता | सीता का नख-शिख श्रृंगार देखते ही बन रहा था-------- सुर्ख लाल रंग की जड़ीदार पटोर साड़ी , मोती-माणिक्य जड़ित मंगटीका, ओठों को स्पर्श करता हुआ बड़ा सा नथ , वक्षस्थल को छूता हुआ हीरा-मोती का कंठहार, झुमका, बाहों पर रत्न जड़ित बाजूबंद | हाथों में मेहंदी, कलाई पर लाख की चूड़ियाँ ...माणिक्य जड़ित हथसंकर | नक्काशीदार चांदी की करधनी, पैरों में महावर, चांदी के पाजेब, बिछुए | चोटी में गुंथे हुए बेली फूल के गजरे ,मांग में भरा सिंदूर |बालों और चोली को ढकता हुआ हुआ हरे रंग का पारदर्शक जड़ीदार चुन्नी----- देखकर सभी महिलायें भावविभोर होने लगीं |
सच, ऐसे नयनाभिराम जोड़े पृथ्वी पर कभी-कभार ही अवतरित होते हैं ! इसी बीच एक सेविका पास आकर, आम के पल्लव से वर-वधु के ऊपर कुछ छींटने लगी | हींग का तेज गंध एकाएक वातावरण में फ़ैल गया | वहाँ उपस्थित महिलाओं को समझते देर न लगी कि यह नजर उतारने का टोटका है | तभी बाहर से पंडित जी की तेज आवाज , “विदाई का मुहूर्त शरू हो गया .....” सुनते ही सब के सब उदासी हो गये | कुलदेवी के आगे रखे सूप (अनाज फटकने का पात्र) में खोइंछा (धान, दूब, हल्दी का पांच गाँठ ,पांच साबुत सुपारी, सिंदूर और कुछ अशर्फियाँ)..... को उठाने के लिए माता सुनयना जैसे ही आगे बढ़ी...वो फफक पड़ी | उनको रोते देख सभी महिलायें, सखी-सहेलियों के आँखों से आँसू बहने लगे | ’समदौन’ (विदाई गीत ) शुरू हो गया | गीत के साथ महिलाओं के सिसकने की आवाज सुनाई पड़ने लगी | सीता को भावुक होते देख, सुनयना बेहद दुखी हो गई | उसने सीता के आँचल को खोलकर उसमें एक लाल रेशमी टुकड़ा बिछाया तथा सूप में रखे खोइंछा को विधिवत अपने मुठ्ठियों में भरकर उसके आंचल में रखने लगी | सीता के आँखों से आँसू झर-झरकर गिरने लगे | वो एकटक खोइंछा को देख रही थी| बाल्यावस्था से ही वो इस रस्मों को देखते आ रही थी | जब भी कोई महिला नैहर या ससुराल जाती थी तो इसीतरह से खोइंछा देकर माता सुनयना उसे विदा करती थीं | पर, आज, पहली बार सीता को इस रस्म की पीड़ा महसूस हुई | मानो, किसी विकसित तना को उसके जड़ से अलग कर, किसी अन्य बगीचे में उसे लगाया जा रहा हो ! सीता का मन विचलित होने लगा | सुनयना ने खोइंछा को ठीक से बाँधकर उसे सीता के कमर में खोंस दिया | सीता को अब रहा नहीं गया वो माता के सीने से चिपककर सुबकने लगी | सुनयना के धैर्य का बाँध ध्वस्त हो गया ... वो इसतरह से विलाप करने लगी जैसे किसी ने उसके कलेजे के टुकड़े को उससे अलग कर रहा हो | रोते-बिलखते वो बार-बार सीता के माथे को चूमती रहीऔय राम की ओर निरीह भाव से देखती रही |
“वर-वधु को जल्दी से बाहर ले आइये ... |” पंडित जी की तेज आवाज... फिर से सुनाई पड़ी | झटपट सभी महिलायें सीता-राम को साथ लेकर बाहर आ गयीं | वहीँ, कुछ दूरी पर जनक खड़े थे | जैसे इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हों |आखिर , हों... भी क्यों नहीं ! महाप्रतापी अयोध्या नरेश दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र, धनुर्धारी श्रीराम...के संग बेटी को विदा जो कर रहे हैं | एक पिता अपनी पुत्री का हाथ किसी सुयोग्य के हाथों में देकर कितना भार मुक्त और प्रसन्नचित्त हो जाता है, यह जनक के चेहरे से साफ़-साफ़ झलक रहा था | अरे...ये क्या ! जैसे ही वैदेही (सीता) बिलखते हुए उनके नजदीक पहुँची...पिता, विदेह (जनक) अधीर हो उठे | जनक ने सीता को एक अबोध शिशु की भाँती गले से वैसे ही लगा लिया , जैसे वो आज से लगभग उन्नीस साल पहले.............. ......................... ”
अनावृष्टि के निवारणार्थ, यज्ञ के क्रम में जब जनक खेत की कर्मकांड जुताई कर रहे थे, तो उनकी नजर धूल-मिटटी में लिपटी एक नवजात कन्या पर पड़ी | उन्होंने तत्क्षण उसे गोद में उठाकर गले से लगा लिया |” ...... लगाये थे |
पिता, पुत्री को गले से लगाकर जैसे कहीं खो गये........ “सीता के वर चयन हेतु जो स्वयंवर रचा गया , उसमें मैंने शर्त रखा था कि जो कोई शिव के धनुष को भंग करेगा, उसीसे मेरी बेटी सीता का विवाह होगा |”..... और वैसा ही हुआ |
शिव के प्रताप से ही आज यह मनोवांछित कार्य सफल हो पाया | मेरे ऊपर भगवान शिव की साक्षात कृपा थी, तभी तो शिव का धनुष मेरे राजभवन में पूजित और प्रतिष्ठित था ......... श्रीराम के हाथ का स्पर्श होते ही जनक की तन्द्रा भंग हुई | श्रीराम अभी पिता तुल्य जनक के चरण छू रहे थे | जनक चौंक गये ... अविलंब, आशीर्वाद देने की मुद्रा में अपने हाथों को जमाता 'श्रीराम' के मुकुट पर रख दिये |
पर... मुहूर्त का ध्यान आते ही तुरंत बेटी-दामाद को लेकर राजा जनक सीधे आगे बढ़े गये | सीता अभी बच्चों की तरह बिलख रही थी | सुनयना संग सभी महिलायें मिलकर सीता और राम को फूलों से सजे पालकी में बिठाया | पालकी उठते ही पंडित जी जोर से सस्वर मंगलाचरण पाठ करने लगे......... सीता की हृदय विदारक चीख वातावरण में गूंज उठी | समीप खड़े नौकर-चाकर सब के सब भावुक हो गये | हल्के गर्जना के साथ बूंदा-बांदी शुरू हो गई...मानो स्वर्ग से देवता-पितर प्रसन्न होकर नव दम्पति को आशीर्वाद दे रहे हों | सभी गाजे-बाजे के साथ पालकी नजरों से बहुत दूर होती चली गयी ! लेकिन , माता सुनयना और पिता जनक, शून्य आँखों से पालकी को ओझल होने तक एकटक उसे देखते रहे | ...समय, कहाँ.. कभी किसी का इन्तजार करता !वो ---इस अलभ्य कन्या ' विदेह की वैदेही' के ऊपर इतिहास लिखना शुरू कर दिया ....................................................... ...................................................................... “जब आधुनिकता की कोई परिकल्पना नहीं थी, उस कालखंड में वर्ण और गोत्र को आधार मानकर ही समाज का वर्गीकरण हुआ करता था | उस समय राजा जनक ने इस अनाथ कन्या को अपनी पुत्री के रूप में अंगीकार कर लिया था | उन्होंने न केवल अंगीकार किया बल्कि वह कन्या (सीता.).....जनक और सुनयना की प्राणाधार बन गई | उस समय जनक ने तनिक भी विचार नहीं किया कि यह कन्या ....किस कुल --गोत्र की है ? किस वर्ण की है ? किसका खून इसकी रगों में दौड़ रहा है ? उनके मन में बेटा-बेटी में कभी कोई भेद नहीं था | वो समदर्शी थे | उनकी नजरों में मिटटी और स्वर्ण एक समान था | सही मायने में वो ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत को जीना पसंद करते थे | जनक के दरबार में भारतीय कर्मकांड शास्त्र के प्रणेता याज्ञवल्क्य और न्यायदर्शन के प्रणेता गौतम रहा करते थे | राजा होने के बावजूद...सांसारिक मोह-माया, राग-द्वेष, भोग-विलास सभी से वो बिल्कुल परे थे | इसलिए तो समाज ने उन्हें विदेह की उपाधि से अलंकृत किया | इस पृथ्वी पर जनक ही.... एक मात्र विदेह के रूप में जगतविख्यात हुए | ऐसे युगांतरकारी विकास और वैयक्तिकरण के मूल में सिर्फ एक पिता की जिजीविषा थी | इस वर्तमान युग के मानवीय आदर्श और लिबरल विचारधारा से भी अधिक आदर्शवादिता... विदेह ने दिखाई और उनकी पुत्री... वैदेही ने भी ....इस वर्तमान काल के नारी स्शक्तिकरण के उच्चतम पैमाना को
स्थापित करके दिखला दिया "
मिन्नी मिश्रा \ पटना ©