१ दृष्टि , समग्र लघुकथा विशेषांक
(प्रकाशक
सम्पादक -अशोक जैन)
१९७८
में प्रकाशित लघुकथा संकलन का पुनःप्रकाशन
(पृष्ठ
संख्या-१५२ ,मूल्य-११०रुपये)
मुद्रण--अशोक
प्रिंटिंग प्रैस ,चावड़ी
बाजार , दिल्ली-६
समीक्षा मेरी कलम से
---
'साहित्य संवेद’ पर समीक्षकीय आयोजन
२०१९
लघुकथा को समर्पित अर्धवार्षिक , ‘समग्र’ के इस ऐतिहासिक
विशेषांक के श्रमसाध्य परिश्रम हेतु आ. Ashok Jain सर को मेरा सादर नमन।
सबसे पहले इस अनोखे आवरण पृष्ठ की बात करती हूँ ---‘ सामाजिक, पारिवारिक विसंगतियों
के बंधन से जकड़ा, त्रस्त
मानव जो अपनी आँखों से इसे देखना नहीं चाहता है, फिर भी जीने के लिए
मजबूर है ’---को देखकर सहसा मेरे दिल और दिमाग में एक साथ अनेकों सवाल तूफ़ान की
तरह बवंडर मचाने लगे | यह
कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि लघुकथा एक डॉक्टर, सर्जन की तरह है, जो समाज में व्याप्त
विसंगतियों से हमें निजात दिलाने का भरसक प्रयत्न करता है | आदि से अंत तक पत्रिका
की सामग्री और गुणवत्ता से कहीं समझौता नहीं किया गया है |
‘समग्र
लघुकथा विशेषांक’ की
जो बातें मुझे बेहद अच्छी लगी वो आपलोगों के समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ ----
सम्पादक की कलम से....मैं और मेरी ‘दृष्टि’
#
“दृष्टि
के माध्यम से उन कलात्मक प्रामाणिक दस्तावेजी लघुकथा संकलनों के पुनः प्रकाशन का
सिलसिला शुरू करते हुए मुझे अत्यंत संतोष है|४५-४६ वर्ष पूर्व की
यादें समेटना सहज नहीं है.......फिर भी प्रयास करूँगा कि प्रारम्भिक दौर की
लघुकथाएँ आज के नवोदितों को सहज व समग्र रूप से करवा सकूँ |”
# ‘समग्र’ की समग्रता के आयाम #
(डॉ.
अशोक भाटिया )--अभी इन्हें ‘क्षितिज लघुकथा विशिष्ट सम्मान २०१८ ‘ से नवाजा गया है |
“प्रसिद्ध
कथाकार कमलेश्वर द्वारा ‘सारिका’ (
तब
मासिक ) सन् १९७३ –साहित्य
की सबसे लोकप्रिय और व्यावसायिक पत्रिका थी | लेकिन ‘सारिका’ में छपने वाली तब की
अधिकतर लघुकथाएँ उथलेपन और शिल्पहीनता का शिकार थीं | सतही लेखन के इस दौर
में ‘समग्र’ के लघुकथा विशेषांक ने
लघुकथा की रचनात्मक भूमिका को नये सिरे से परिभाषित किया, जिस कारण आज भी इसका
उतना ही महत्व है | कहानी
को जो दूरी तय करने में काफी वक्त लगा ,उस दूरी को तय करने में
लघुकथा ने अद्भुत् कीर्तिमान स्थापित किये हैं |”
# अनौपचारिक
:अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता :चार
“अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता के सही उपयोग के लिए एक प्रकार की प्रतिबद्धता अनिवार्य होती है , और यह प्रतिबद्धता होनी
चाहिए आम आदमी के प्रति | इस
प्रकार की प्रतिबद्धता के अभाव में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नितान्त ऐय्याशी
ही माना जाना चाहिए |”
#हिंदी लघुकथा : शिल्प और रचना
विधान#
( महावीर
प्रसाद जैन )
“कहानी
के कथानक को लघुकथा के रूप में नहीं रखा जा सकता है क्योंकि कथानक जिन बिन्दुओं पर
विस्तार चाहता है, चरित्रों
का रूपायन चाहता है, वो
लघुकथा नहीं दे सकती |हमें
लघुकथा को गूढ़ ग्रंथीय विधा नहीं बनाना है | लघुकथा सामाजिक भूमिका
का तभी निर्वाह कर सकती है जब उसका शिल्प आदमी के हालातों की सीधी-सच्ची बयानी सरल
शब्दों द्वारा कर सके | इसलिए
लघुकथा की भाषा के प्रति कुछ ज्यादा ही सतर्कता अपेक्षित है | वस्तुतः लघुकथा की भाषा
–शैली
......पुर्णतः लेखक की सुविधा और कथ्य की आवश्क्य्ताओं पर निर्भर करता है |”
इन्होंने इस आलेख में लघुकथा के विभिन्न आयामों को समझाने की
पुरजोर कोशिश की है |
#हिंदी
लघुकथा: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में #
( जगदीश
कश्यप )
लघुकथा
का यह काल गौरवशाली नहीं कहा जा सकता | यह आलेख हमें सम्पूर्ण
लघुकथा जगत की सैर करा जाता है। इसके अंतर्गत प्राचीन काल की लघुकथाएँ--
*वैदिक
लघुकथाएँ---यमी और देवताओं के बीच का संवाद , शीर्षक विहीन छोटी सी
लघुकथा , बेहद
सुंदर सन्देश है | इस
कथा में रात का महत्व बताया गया है..जो मुझे बहुत अच्छा लगा |
*बौध,जैन तथा रामायण-महाभारत
की लघुकथाएँ--- राजा और बंदर की छोटी , शीर्षक विहीन, तीक्ष्ण व्यंगात्मक
लघुकथा है |
*पंचतंत्र
एवं हितोपदेश की लघुकथाएँ--- ‘चतुर नार’ हितोपदेश की यह लघुकथा
बहुत ही विलक्षण और शीर्षक भी वाकई लाजवाब है |
*इसी
क्रम में सुप्त्काल की लघुकथाएँ,आधुनिक लघुकथाएँ का विस्तार से उल्लेख है | सूर,कबीर तुलसी,देवकीनंदन खत्री ,प्रेमचंद जैसे कालजयी
पुरुषों तथा सिंहासन बत्तीसी, हरिश्चन्द्र मैगज़ीन, धर्मयुग, निहारिका कादम्बिनी आदि
अनेकों प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं की चर्चा हुई है | बहुत से प्रतिभाशाली
लेखकों --जिसमं बलराम अग्रवाल, कुलदीप जैन , अशोक जैन , मालती महावर, विभा रश्मि आदि का नाम
उल्लिखित है |
*लघुकथा
को मान्यता ---“१९७४
में ही लघुकथा को स्वतंत्र विधा के रूप में मान्यता देकर मेरठ विश्वविद्यालय की
हिंदी परिषद ने महती कार्य किया |”
“ लघुकथा
का लक्ष्य जीवन के किसी मार्मिक सत्य को प्रकाशित करना होता है , जो बहुधा बिजली की कौंध
की भाँति अभिव्यक्त होता है|” --डॉ. ओमप्रकाश दीक्षित
#विश्व साहित्य और लघुकथाएँ
---इसके अन्तर्गत विश्वस्तरीय सात लघुकथाओं को स्थान दिया गया है।
‘समरसेट
माम’ बेहद
संवेदनशील लघुकथा है... बीस साल वैवाहिक जीवन यापन करने के बाद पत्नी को पियक्कर
पति से तलाक मिल जाता है | कथा
की अंतिम पंक्ति ---पत्नी पैसे उठाकर अपने तलाकशुदा पति के मुंह पर मारते हुए
चीखकर कहती है -‘ अपने
पैसे लो और मुझे मेरे बीस वर्ष वापस करो |’ प्रताड़ित पत्नी का
आक्रोश यहाँ साफ़-साफ़ झलकता है |
पर, मेरा प्रश्न यह है कि
यदि पियक्कर पति से पत्नी बहुत परेशान रहा करती थी तो यह आक्रोश जो तलाक के समय
अभी दिख रहा है...वो बीस सालों तक क्यों शिथिल पड़ा रहा ?
#प्रादेशिक भाषाओं में लघुकथाएँ
---इसके अंतर्गत सात भाषाओं की एक-एक लघुकथा है |
१.‘गली का चिराग’ (
वी.वी.एस
अय्यर )एक भिखारी की मार्मिक कथा है |
२.नटखट
बालिका ( रविन्द्र नाथ ठाकुर ) बहुत ही भावपूर्ण रचना है, लेकिन इसका अंत मुझे
अस्पष्ट लगा |
#लघुकथा विशेषांक : विश्लेष्ण
और मूल्यांकन
(मोहन
राजेश )
जून
१९७३ में ‘सारिका’—एक प्रतिष्ठित पत्रिका
ने एक महत्वपूर्ण लघुकथांक दिया था ..........जो लघुकथा-आन्दोलन को बढाने में
महत्वपूर्ण योगदान दिया है |आ. राजेश जी का विश्लेष्ण और मूल्यांकन बहुत ही दिलजस्प
और जानकारियों से भरा खजाना है |
# लघुकथा
संग्रह : एक दृष्टि#
(महावीर
प्रसाद जैन)
“१९५०
में आनंद मोहन अवस्थी ने कथ्य और शिल्प दृष्टिकोण से जो लघुकथाएँ लिखीं उनमें से
कुछ लघुकथाएँ तो आज की लघुकथाओं को भी मात करती हैं |
सन
१९७० के बाद जो लघुकथा संग्रह प्रकाश में आये हैं, उनमें ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ का नाम महत्वपूर्ण और
श्रेष्ठ है | आ.
भागीरथ और रमेश जैन द्वारा संपादित इस संग्रह में ३२ लेखकों की ६६ लघुकथाएं
प्रकाशित हुई हैं | यह
संग्रह लघुकथा क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है |”
# मूल्यांकन....आधुनिक
लघुकथाकार और उनके तेवर---
“लघुकथा
अपने आपको जिंदगी के किन्हीं मूल्यों से उतना नहीं जोड़ती जितना सीधे जिंदगी से
जोड़ती है | रमेश
बतरा, भागीरथ, जगदीश कश्यप, महावीर प्रसाद जैन, मोहन राजेश, कृष्ण कमलेश,सिमर सदोष , पृथ्वीराज अरोड़ा , चित्रा मुद्गल तथा
कमलेश भारतीय आदि प्रमुख हैं | यह उपखंड इस तथ्य का भी
प्रमाण है कि १९७८ तक हिंदी लघुकथा किस ऊँचाई तक पहुँच चुकी थी |”
इन दस लघुकथाकारों की लघुकथाएँ उत्कृष्ट और बेहद संवेदनशोल है, जो मन-मस्तिष्क को
झकझोर कर रख देती है |
आ.रमेश
बतरा की ‘कहूं
कहानी ‘ बेहद
छोटी, अत्यंत
प्रभावशाली, बेजोड़
लघुकथा है | आ.भागीरथ
की ‘बेदखल’ गरीब लोगों की कथा है
जो यथार्थ को उजागर करती है-- ‘अकाल पड़ने के कारण गरीबी से निजात पाने के लिए....
परिवार को लेकर वह अपने गाँव से शहर प्रस्थान कर जाता है| फिर वर्षों बाद, बेटी की शादी के लिए
कुछ पैसा जमा करके पुनः परिवार के साथ गाँव वापस आता है | उसकी बेटी- सूमटी, साफ़-सुथरे कपड़े और बदले
हुए शहरी चाल-ढाल के कारण , अब
गाँव वालों को वैश्या के रूप में नजर आने लगती है |’ यहाँ आम लोगों की
मानसिकता को दर्शाया गया है.. बहुत गरीब यदि आमिर या संपन्न बन जाता है तो लोग उसे
संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं |’
आ.कृष्ण कमलेश की ‘किराए की जिन्दगी’ और ‘पुरस्कार’ बेहद संवेदनशील लघुकथा
है | आ.मोहन
राजेश की ‘पति’- एलिजा नाम की एक औरत जो
कालान्तर में पत्नी से वैश्या बन गई, फिर उसके पास पति आता
है , एक
ग्राहक के रूप में ....बहुत ही हृदयसपर्शी लघुकथा है | आ. जगदीश कश्यप की
लघुकथा ‘कहानी
का प्लाट ‘ प्रेम
प्रसंग को लेकर पुलिस चौकी के अंदर फैले भ्रष्टाचार को तथा ‘योग्य प्रत्याशी ‘ महाविद्यालय के अंदर
बहाली के दौरान व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर करती श्रेष्ठ लघुकथा है |
चित्रा
मुद्गल जी की कथा ‘गरीब
की माँ’ मुझे
थोड़ी अस्पष्ट लगी, संभवतः
भाषा-शैली के चलते लगी हो | पर
उनकी ..दूसरी कथा ‘पत्नी’ उत्कृष्ट ,अनूठी, सशक्त लघुकथा है | जिसे कईबार पढ़ा जा सकता
है | महावीर
प्रसाद जैन ,कमलेश
भारतीय, पृथ्वीराज
अरोड़ा, सिमर
सदोष की लघुकथाएँ बहुत ही प्रभावशाली है... खासकर ‘चढ़ता हुआ जहर ‘ बेहद सशक्त लघुकथा है |
लघुकथा के दूसरे खण्ड #कुछ और# में २५ लेखक/ लेखिकाओं
की एक-एक
लघुकथाओं को शामिल किया गया है। आ. विभा रश्मि की ‘अकाल ग्रस्त रिश्ते’ पढकर मैं निःशब्द रह
गयी ...उम्दा शिल्प, बेहतरीन
शीर्षक...बहुत ही मार्मिक लघुकथा है| आ. बलराम अग्रवाल की ‘ओस’ जाड़े की रात का अद्भुत्
जीव चित्रण पढने को मिला, बहुत
ही मार्मिक लघुकथा है | आ.
डॉ, सतीश
दुबे की ‘फैसला’ उत्कृष्ट कथानक और बेहद
संवेदनशील लघुकथा है | आ.सुरेन्द्र
मनन की ‘गुजारा’ आ. सरोज सक्सेना की ‘पानी पानी में फर्क’ और आ. अशोक जैन की ‘...और उसने कहा’ बेहद अच्छी लघुकथा है |
लघुकथा के तीसरे खण्ड #कुछ और सुखनवर# के अंतर्गत वक्त की
सच्चाई से जुड़ी २६ लघुकथाएँ ली गयी हैं । आ. आभा सिंह की ‘आवरण’ बेहतरीन पंच...उम्दा
लघुकथा है |आ.नरेंद्र
निर्मोही की ‘बिच्छू’ प्रतीकात्मक रूप से
लिखी गयी बेहतरीन लघुकथा है | आ. गुलशन बालानी की ‘दूसरा पाप’ बिल्कुल अलग विषय को
लेकर लिखी गयी अच्छी लघुकथा है | पर इसका अंत—---‘घर आकर उनदोनों
......... दोनों में से कोई भी राजू को लेने के लिए तैयार न था |’ मुझे पढ़कर अटपटा
लगा...माँ की ममता आखिर कहाँ गई ?
लघुकथा के अंतिम खण्ड में #सम्भावनाएँ#
के
अंतर्गत १० लघुकथाकारों को शामिल किया गया है । आ. रामलखन सिंह की ‘नयी माँ’ ,
आ.
पंकज तनखा की ‘ख़ुशी
के लिए’, आ. अशोक गर्ग की ‘अवमूल्यन’ बहुत ही अनूठी , मर्मस्पशी लघुकथा है |
# रमेश
बतरा जी से गौरीनंदन सिंहल की लम्बी बातचीत -- पढ़कर लघुकथा के बारें में लगभग सभी
सवालों के जवाब आसानी से मिल जाते हैं।
“स्वतंत्र
तो वस्तुतः विधा नहीं अपितु कथ्य होता है....वैसे भी विधा का जमाना लद गया
है.....इसने हमें फर्मुलेबाजी के सिवा और कुछ नहीं दिया | हमेशा वही लोग सफल
रचनाकार सिद्ध हुए हैं, जिन्होंने
इस बीमारी के कीटाणुओं से परहेज रखा|”
रमेश
बतरा जी द्वारा कही गयी उपरोक्त कथन ....मेरे अन्तस् को छू गई |
#समालोचना ---क्या क्यूँ कैसे @लघुकथा (लघुकथा
संग्रह-अशोक भाटिया )
विसंगतियों
पर गहरी चोट करती लघुकथाएँ | इसके अंतर्गत बहुत सी
लघुकथाओं की चर्चा की गयी है...जिसे पढने के बाद मेरे मन में उत्सुकता जाग उठी, भविष्य में इस पुस्तक
को मैं भी पढना चाहूंगी |
# युगबोध
कराती लघुकथाएँ : सियाह हाशिये
मंटो
की लघुकथाएँ---अशोक भाटिया
मंटो यथार्थवादी परम्परा के अनुयायी रहे और कबीर की तरह स्पष्टवादी
...जो कहना डंके की चोट पर कहना | उनका उद्देश्य आदर्श की
स्थापना करना नहीं, बल्कि
यथार्थ से रूबरू करवाना है | लघुकथा हमें अंधविश्वास
के विरुध्द लड़ने का एक हथियार थमाती है |
अंत में --- दृष्टि का यह “समग्र लघुकथा विशेषांक” निःसंदेह सभी पाठकों और
लेखकों के लिए दस्तावेज के रूप में संग्रहणीय है | आवश्कयता है इसे मनन
करने की.... तभी जाकर इसमें निहितार्थ सभी बिन्दुओं को हम अच्छी तरह समझ सकते हैं | मेरा ऐसा मानना है कि
इस संकलन की सभी लघुकथाओं को पढ़कर लघुकथा लेखन की बारीकियों को लेखक स्वत: ही
आसानी से सीख सकता है। ध्यानाकर्षण के लिए कहना चाहूंगी कि पत्रिका के साइज़ को
लेकर मैं काफी प्रसन्न हूँ | इसे अपने साथ रखकर
यात्रा में लघुकथा पढने का भरपूर आनंद उठाया जा सकता है | है |
इस
विशेषांक को निष्ठा और लगन के साथ प्रस्तुत करने के लिय आ. अशोक जैन सर और डॉ.
अशोक भाटिया सर का हार्दिक आभार और सादर धन्यवाद |
“सूक्ष्मता को ग्रहण
करने और उनका तीव्रतम फोकस बनाने में सक्षम होने के कारण लघुकथा अपनी सहोदर कथा
विधाओं से सामाजिक सरोकारों के पक्ष में कहीं आगे.... केवल खड़ी ही नहीं है, उनका नेतृत्व कर रही है
| डॉ.
उमेश महादोषी ”
त्रुटियों
के लिए क्षमा सहित ----सादर🙏
मिन्नी मिश्रा /पटना
२१.६.१९
२. *लघुकथा कलश* जनवरी-जून 2019
, तृतीय
महाविशेषांक
(सम्पादक – योगराज प्रभाकर ) (२६४-
पृष्ठ)
समीक्षा मेरी कलम से ----
लघुकथा को समर्पित यह अर्धवार्षिक पत्रिका अपने आप में एक मिशाल है
| इसका
मनमोहक आवरण पृष्ठ---लहरों के प्रहार से जूझ रहा प्रकाश स्तम्भ , हमें बहुत कुछ सोचने को
विवश करता है | पत्रिका
के अंदर के पृष्ठ भी आवरण के अनुरूप सुंदर और चिकने हैं, अर्थात, भीतर-बाहर एक समान | ध्यानाकर्षण हेतु कलश
के ऊपर एक बात कहना चाहूँगी...सभी को पता है, हमारे यहाँ प्रत्येक
मांगलिक कार्य में कलश का व्यवहार होता है | यह परम्परागत रूपेण शुभ
का प्रतीक है |
प्रस्तुत अंक में विशिष्ट लघुकथाकार के अलावे ....आलेख, साक्षात्कार, पुस्तक समीक्षा , गतिविधियाँ का साथ-साथ
१७३ लेखकों की लघुकथाएँ, ७
नेपाली लघुकथाएँ, पंजाबी
और सिन्धी की १०-१० लघुकथाएँ शामिल है |यह मेरा सौभाग्य है कि
इस अंक में मैं भी लघुकथाकार के रूप में शामिल हूँ |
तृतीय
महाविशेषांक की जो बातें मुझे बेहद अच्छी लगी..वो आपलोगों के समक्ष रख रही हूँ |
*****
. साच
कहूँ, सुन
लेहु सबै....( सम्पादकीय )
”अच्छी-खासी
संख्या में नवोदित रचनाकार लघुकथा विधा की ओर आकर्षित हो रहे हैं |किन्तु उचित मार्गदर्शन
के अभाव में उनके भटक जाने का खतरा है , अतः उनके शिक्षण और
प्रशिक्षण का उत्तरदायित्व भी इस विधा के पुरोधाओं का ही है |
“लघुकथा
में कालखंड को लेकर भी भ्रांतियाँ फैलाई जा रही है | लघुकथा किसी बड़े
परिपेक्ष्य से किसी विशेष क्षण का सूक्ष्म निरिक्षण कर उसे मेग्निफाई करके उभारने
का नाम है |यदि
लघुकथा किसी विशेष घटना को उभारने वाली एकांगी विधा का नाम है तो जाहिर है कि
लघुकथा एक ही कालखंड में सीमित होती है | अर्थात लघुकथा में एक
से अधिक कालखंड होने से वह ‘कालखंड दोष’ से ग्रसित मानी जायेगी
तथा लघुकथा न रहकर एक कहानी हो जायेगी | लघुकथा में कथावस्तु की
एकतंता, लघुता
और एकांगिता अति आवश्यक है |”
डॉ.
बलराम अग्रवाल के अनुसार , “ लघुकथा किसी एक ही संवेदन बिंदु को उद्भाषित करती हुई होनी चाहिए, अनेको को नहीं | लघुकथा में जिसे हम ‘क्षण’ कहते हैं वह द्वंद्व को
उभारने वाला पाठक मस्तिष्क को उस ओर प्रेरित करने वाला होना चाहिए |”
“पंच-पंक्ति
! यह बात सत्य है कि लघुकथा में पंच-पंक्ति की कोई अनिवार्यता नहीं होती | किन्तु इसके औचित्य को
नकारना बिल्कुल वैसा ही है जैसे आरती में सात्विकता से मुनकर होना | दर्जनों ऐसी कालजयी
लघुकथाएँ उदाहरण स्वरूप हैं , जैसे ----रमेश बत्तरा
की लघुकथा -‘सूअर’ ,
अशोक
भाटिया की-‘रंग, मुंशी प्रेमचंद की –‘राष्ट्र का सेवक’ ,
हरिशंकर
परसाई की -‘संस्कृति’ ,
कमल
चोपड़ा की -‘छोनू’ ,
श्यामसुन्दर
दीप्ति की –‘सरहद’ आदि ...जो अपनी सटीक
पंच-पंक्ति के कारण चिरजीवी हो गई है |
*****
विशिष्ट लघुकथाकार, आ.महेंद्र कुमार जी की
लघुकथाओं से साक्षात्कार हुआ | जिनकी समीक्षा डॉ.अशोक
भाटिया जी ने बखूबी की है। आ.महेंद्र जी की ‘मरीचिका’ और ‘बलि’ मुझे बेहद संवेदनशील और
उम्दा लघुकथा है |
इसी
क्रम में आदरणीय मुकेश शर्मा जी की लघुकथाएं... जिनकी समीक्षा प्रो.बी.एल .आच्छा
जी ने की है। समीक्षा और सभी लघुकथाएँ बेहद प्रभावशाली है | ‘माँ का सहारा’ बेहद संवेदनशील लघुकथा
है , इस
कथा में स्त्री का कोमल पक्ष पुरुष प्रधान परिवार पर भारी दिख रहा है |
इसी क्रम में आदरणीय कमल चोपड़ा जी की लघुकथाओं की समीक्षा
आ.रविप्रभाकर सर ने की है। आ. कमल चोपड़ा जी ने बहुत सहजता और सरलता के साथ अपनी
लघुकथाओं को संप्रेषित किया है | यह इनकी खासियत है, जो अन्य लघुकथाकारों से
इन्हें अलग करती है | ’प्लान‘ लिव
इन रिलेशनशिप और करियर को लेकर लिखी गई, इनकी बेहद मर्मस्पर्शी
लघुकथा है |
समीक्षा के साथ इन सभी लघुकथाओं को पढना....बेशक मेरे लिए बहुत ही
सुखद और ज्ञानवर्धक अनुभव रहा | नवोदितों को आगे बढाने
और उनके मार्गदर्शन हेतु आ. योगराज सर का कृतसंकल्प सचमुच काबिलेतारीफ है |
*****
आ.कल्पना
भट्ट जी का आलेख--हिंदी लघुकथा में ‘पिता’ पात्र का चरित्र-चित्रण
“पिता
सूर्य की तरह गर्म होते हैं, पर परिवार के लिए खुद
तपकर परिवार का उजाला भर देते हैं | पर ऐसे पिता की पीड़ा
बच्चे कब समझ पाते हैं |”
उत्कृष्ट
,संवेदनशील
लेखन के लिए हृदय से बधाई और शुभकामनाएँ |
*****
लघुकथा
को श्रेष्ठ बनाने में शीर्षक की भूमिका (डॉ.ध्रुव कुमार )
“लघुकथा
के शीर्षक का महत्व अन्य विधाओं के अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि अनेक
लघुकथाएँ अपने सटीक शीर्षक के होने के कारण ही श्रेष्ठता प्राप्त कर जाती है और
ठीक इसके विपरीत सटीक शीर्षक नहीं होने के कारण अनेक लघुकथाएँ श्रेष्ठ बनते-बनते
रह जाती है |”
*****
लघुकथा
: रचना-विधान और आलोचना के प्रतिमान ( निशान्तर )
“लघुकथा
की महत्ता उसके द्वारा पाठक मन पर छोड़े गये अपने ढंग के प्रभाव को ही लेकर है |अतः लघुकथा के मुल्यांक
के क्रम में जितना ध्यान उसके विषय-वस्तु पर रखना चाहिए उतना ही ध्यान उसके आकार
और शिल्प पर भी | “
“जब
सरल कथानक का रचनात्मक विनियोग होता है तब लघुकथा का निर्माण होता है और जब जटिल
कथानक का उपयोग किया जाता है तब कहानी या अन्य लघुकथेतर कथात्मक विधाओं की रचनाओं
का सर्जन होता है |”
*****
लघुकथा
कितनी पारम्परिक कितनी आधुनिक ( डॉ. पुरुषोत्तम दुबे )
“आधुनिकता
की समझ को व्यापक बनाने में परम्परा का बोध होना नितांत आवश्यक है |यदि परम्पराओं का
मूल्यांकन न हों तो परम्पराएँ आगे चलकर प्रथा अथवा रूढ़ि बन जाती है |”
“लघुकथा
केवल शिल्प और भाषा नहीं है, वह कथ्य है, विषय वस्तु है |”
*****
द्वितीय
हिंदी लघुकथा–काल
( डॉ. रामकुमार घोटड़ )
सुषुप्त्काल
की प्रतिनिधि लघुकथाएँ ( 1921-1950 )
“अगर
इसकाल को विशिष्ठ साहित्य काल कह दिया जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी | यह लघुकथा काल मुंशी
प्रेमचन्द, जयशंकर
प्रसाद, कनैह्यालाल
मिश्र प्रभाकर, दिगम्बर
झा आदि अनेकों सरीखे लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यिक मनीषियों का युग रहा है |”
*****
लघुकथा
और भाषिक प्रयोग ( रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ )
“समाज
और समुदाय ही किसी भाषा के विकास का प्रमुख कारण है | नदी जिसप्रकार निरंतर
प्रवाहित होने का कारण ही नदी है, ठीक उसी प्रकार समाज और
भाषा भी अपने प्रवाह से ही जीवित रहते हैं |”
इसी क्रम में ---
खेल
( रेनड्रॉप के चैटरूम से )----सुकेश साहनी
“साहित्य
ऐसा मरीज नहीं है, जो
परहेजी खाने पर निर्भर हो या जिसे डायलेसिस
पर
रखा जा सके |
जिस
प्रकार भाषा एक व्यवहार है, उसी
प्रकार कथा एक व्यवहार है | वह
रुखा-सुखा निबंध नहीं है ; बल्कि
समाज में निरंतर हो रहे विकास –ह्रास सबकी प्राणवान गाथा है |
*****
खलील
जिब्रान की लघुकथाएँ---( डॉ. वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज)
“संसार
के महानतम लेखकों की श्रंखला में जिनलोगों का नाम आदर से लिया जाता है, उनमें लेबनान और
अमेरिका के लेखक खलील जिब्रान का नाम पांक्तेय है | खलील जिब्रान की
लघुकथाएँ अंग्रेजी भाषा की है, जिन्हें ‘सटोरियट’ कहा जाता है | आ. सुख्यात लघुकथाकार
सुकेश साहनी ने इनकी कथाओं का अनुवाद कर इन्हें लघुकथा का नाम प्रदान किया | खलील जिब्रान की सभी
लघुकथाएँ मानवतावाद से प्रेरित है | पत्रिका में इनकी
लघुकथाएँ ---आमन्त्रण, लुका-छिपी
, पीड़ा
के बाद, विज्ञापन
,आजादी
, लीडर
,वज्रपात
, भाई-भाई
, गोल्डन
बेल्ट और गुलाबी | “
*****
हिंदी
लघुकथा : अतीत और विकास ( डॉ. सतीशराज पुष्करणा)
“ किसी
भी विधा के विकास हेतु यह अनिवार्य है कि उसके अतीत को यथासंभव पूरी तरह खंगाला
जाए और इसके साथ–ही-साथ
इसके शास्त्रीय पक्ष पर भी अपनी पूर्व पीढ़ियों के साहित्यकारों तथा विषय से
संदर्भित पुस्तकों / पत्र-पत्रिकाओं को खोजकर पूरी गंभीरता से अध्यन करते
हुए....लघुकथा को अपने समय से जोड़कर उसपर पूरी गंभीरता से विचार-विमर्श किया जाय | इस हेतु गोष्ठियों एवं
सम्मेलनों के आयोजन महत्वपूर्ण सिद्ध होते हैं |”
*****
राजेन्द्र
यादव की लघुकथाएँ (सुकेश साहनी )
“ बड़ी
कहानी को छोटी कर लिखना लघुकथा नहीं है | आज स्थिति बेहतर है | अन्य विधाओं की भाँती
लघुकथा में अनेक ऐसी रचनाएँ लिखी जा रही हैं, जो विश्वस्तरीय रचनाओं
से की जा सकती है | लघुकथा
में अंत का बहुत महत्व है| अंत
अतिरिक्त परिश्रम और कौशल की माँग करता है |”
*****
“हृदय
का दर्द ही सृजन का बीज बनता है”---सतीश राठी
*****
राजपथ
के साथ पगडंडियाँ भी ( माधव नागदा )
“लघुकथाकार
की नजर जितनी पैनी और साफ़ होगी वह उतना ही सफाई से छद्म यथार्थ की परतें उधेरते
हुए पाठकों को सच्चई से रूबरू करा सकेगा |”
******
आधारशिला---
श्रद्धांजलि स्वरूप पंजाबी के मूर्धन्य लघुकथाकार स्व.जगदीश अरमानी जी की दस
लघुकथाओं को प्रस्तुत किया गया है। कम शब्दों में लिखी गई प्रभावशाली लघुकथाएँ हैं
। इस स्तम्भ में दस दिवंगत लघुकथाकारों की लघुकथा प्रेषित कर उन्हें मनःपूर्वक
श्रद्धांजलि अर्पित की गई है | मुझे स्व. कृष्ण कमलेश
की लघुकथा ‘ठीक
ठाक’ , स्व. विष्णु प्रभाकर की लघुकथा ‘ईश्वर का चेहरा’ और स्व. श्याम सुंदर
व्यास की लघुकथा ‘चाकर-कुंडली
‘ बेहद
प्रभावशाली
लगी |
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इसके
बाद सभी चयनित लघुकथाकारों की लघुकथा है | इनके चयन में सम्पादक
मंडल का अथक श्रम स्पष्ट दिखता है | सुखद संयोग मेरी भी एक
लघुकथा इसमें शामिल है |
अंत में ----यह कहना अतिश्योक्ति नहीं लगता कि बहुत रंगों , आयामों को समेटे यह
तृतीय महाविशेषांक अंक पाठकों के लिए अद्वितीय और संग्रहणीय है| मेरा यह मानना है कि
सभी नवोदित लघुकथाकारों के लिए यह संग्रह निश्चित रूपेण ..‘मिल का पत्थर’ साबित होगा | मेरी समझ से आज के
संदर्भ में पौराणिक लघुकथाओं पर अधिक ध्यान देने की आवश्कयता है | क्योंकि साहित्य हमारे
समाज और संस्कृति का दर्पण है | लघुकथा न कि मनोरंजन
मात्र के लिए लिखा जाता है, बल्कि
इसका उद्देश्य दूरगामी परिणाम है...जो लोगों के विचारों में क्रान्ति उत्पन्न कर
देता है |
त्रुटियों के लिए क्षमा
सहित--सादर🙏
मिन्नी मिश्रा /पटना
दिनांक --- २३ .५ .२०१९