Wednesday, May 1, 2019

* माँ की पाठशाला *


           
                    
           
आंगन के एक कोने में खड़ा आम का पेड़,  अपने साथी हरसिंगार के पेड़ से हमेशा हँस-हँसकर बातें किया करता था | कितनी सुंदर दोस्ती थी उन दोनों की , अलग जात-बिरादरी के होकर भी,  न कोई ईर्ष्या ... न कोई द्वेष ! दोनों के उन्मुक्त हँसी- ठहाकों से सारा आंगन गूंजायमान रहता था | बचपन की ये सारी बातें सोचकर, आज भी आँखें भर आती है |  
 माँ नित्य सबेरे आंगन में बैठकर , हरसिंगार का फूल चुनती... और मैं, उनके समीप खड़े रहकर प्रकृति को निहारता | ढेर सारे ताजे हरसिंगार के फूल धरती पर इस तरह बिखर जाते मानो ब्रह्ममुहूर्त में धरती माँ की पूजा हो रही हो |

 “दादी कहा करती थी कि गिरे हुए फूल को देवी-देवता पर नहीं चढ़ाया जाता | पर ,माँ तुम इस फूल को नीचे से क्यों.... “  

 “बेटा, यही एकमात्र फूल है जिसे जमीन से उठाकर देवी-देवताओं  पर चढ़ाया जाता है | यह फूल माँ दुर्गा को बहुत पसंद है | ”  

“ पर..मुझे तो अपनी माँ ही सबसे अच्छी लगती है |”   कहते हुए मैं माँ की पीठ पर लटक गया |

“चल, हट | जल्दी-जल्दी मुझे फूल चुनने दे... दुर्गा माँ के लिए माला बनाऊँगी | आज दुर्गा अष्टमी जो है | मंदिर भी जाना है , कुमारी कन्या को खिलाना है |
 हरसिंगार,  फूल का आना...शरद ऋतु का सूचक होता है | प्रकृति के हर सृजन में अनुपम संदेश छिपा है | लेकिन, अत्याधुनिक कहलाने के चक्कर में हम मानव प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं |
 इसलिए, ना तो पहले की तरह आज हम चमकते चाँद का दीदार कर पा रहे हैं , और ना ही  टिमटिमाते तारों का | हम तो मशगूल हैं , चाँद पर आशियाना बनाने में, लहलहाते खेत-खलिहान को जलाकर अट्टालिकाएं खड़े करने में !
 किसे परवाह है... गरीब के उजड़ रहे आशिआनों की ,प्रकृति के प्रदूषण से विलुप्त हो रहे प्राणियों की !   आधुनिकरण के इस प्रचंड प्रवाह में हमारी संवेदनाओं का ही नामोनिशान मिट गया | मानो हम मशीन बनकर रह गये हैं !"


 “ माँ..फूल भी चुनती और अक्सर मुझसे  बातें भी किया करती |  ये सभी बातें,  बचपन में अपनी मिडिल पास माँ के मुंह से सुना करता था | जो धीरे-धीरे संस्कार बन ,मेरे रक्त-मज्जा में बहने लगा |
 अभी भी, मैं माँ को देखे बिना नहीं रह सकता ! इसलिए तो उनको हमेशा अपने साथ रखता हूँ | हमारी जड़ सुरक्षित है तभी तो इस विशाल वृक्ष की शाखा पर, परिंदों की चहचहाहट सुनाई पड़ती है | वरना... हमारा घर कब का मृतप्राय हो जाता !"


“ अरे...सुन रहे हैं...?  जल्दी आ जाइए... माँ कब से खाना परोसे आपकी राह देख रही है | “

पत्नी की आवाज सुनते ही....झट अपनी आत्मकथा लिखना छोड़,  मैं स्टडी रूम से चिल्लाया,  "माँ..ऽऽऽ...अभी आया... |”
                           मिन्नी मिश्रा /पटना
                               स्वरचित  





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