आंगन के एक कोने में खड़ा आम का पेड़, अपने साथी हरसिंगार के पेड़ से हमेशा हँस-हँसकर
बातें किया करता था | कितनी सुंदर दोस्ती थी उन दोनों की , अलग
जात-बिरादरी के होकर भी, न कोई ईर्ष्या
... न कोई द्वेष ! दोनों के उन्मुक्त हँसी- ठहाकों से सारा आंगन गूंजायमान रहता
था | बचपन की ये सारी बातें सोचकर, आज भी आँखें भर आती है |
माँ नित्य
सबेरे आंगन में बैठकर , हरसिंगार का फूल चुनती... और मैं, उनके समीप खड़े रहकर
प्रकृति को निहारता | ढेर सारे ताजे हरसिंगार के फूल धरती पर इस तरह बिखर जाते मानो
ब्रह्ममुहूर्त में धरती माँ की पूजा हो रही हो |
“दादी
कहा करती थी कि गिरे हुए फूल को देवी-देवता पर
नहीं चढ़ाया जाता | पर ,माँ तुम इस फूल को नीचे से क्यों.... “
“बेटा, यही
एकमात्र फूल है जिसे जमीन से उठाकर देवी-देवताओं पर चढ़ाया जाता है | यह फूल माँ दुर्गा को बहुत
पसंद है | ”
“ पर..मुझे तो अपनी माँ ही सबसे अच्छी लगती है |” कहते
हुए मैं माँ की पीठ पर लटक गया |
“चल, हट | जल्दी-जल्दी मुझे फूल चुनने दे...
दुर्गा माँ के लिए माला बनाऊँगी | आज दुर्गा अष्टमी जो है | मंदिर भी जाना है , कुमारी कन्या को खिलाना है |
हरसिंगार, फूल का
आना...शरद ऋतु का सूचक होता है | प्रकृति के हर
सृजन में अनुपम संदेश छिपा है | लेकिन, अत्याधुनिक कहलाने के चक्कर में हम मानव प्रकृति
से दूर होते जा रहे हैं |
इसलिए,
ना तो पहले की तरह आज हम चमकते चाँद का दीदार कर पा रहे हैं , और ना ही टिमटिमाते तारों का | हम तो मशगूल हैं , चाँद पर
आशियाना बनाने में, लहलहाते खेत-खलिहान को जलाकर अट्टालिकाएं खड़े करने में !
किसे
परवाह है... गरीब के उजड़ रहे आशिआनों की ,प्रकृति के प्रदूषण से विलुप्त हो रहे
प्राणियों की ! आधुनिकरण के इस प्रचंड प्रवाह में हमारी संवेदनाओं
का ही नामोनिशान मिट गया | मानो हम मशीन बनकर रह गये हैं !"
“
माँ..फूल भी चुनती और अक्सर मुझसे बातें
भी किया करती | ये सभी बातें, बचपन में अपनी
मिडिल पास माँ के मुंह से सुना करता था | जो धीरे-धीरे संस्कार बन ,मेरे रक्त-मज्जा में बहने लगा |
अभी भी, मैं माँ को देखे बिना नहीं रह सकता ! इसलिए तो उनको हमेशा अपने साथ रखता हूँ | हमारी जड़ सुरक्षित है तभी तो इस विशाल वृक्ष की
शाखा पर, परिंदों की चहचहाहट सुनाई पड़ती है | वरना... हमारा घर कब का मृतप्राय हो
जाता !"
“ अरे...सुन रहे हैं...? जल्दी
आ जाइए... माँ कब से खाना परोसे आपकी राह देख रही है | “
पत्नी की
आवाज सुनते ही....झट अपनी आत्मकथा लिखना छोड़, मैं स्टडी
रूम से चिल्लाया, "माँ..ऽऽऽ...अभी आया... |”
मिन्नी मिश्रा /पटना
स्वरचित
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