समीक्षा मेरी कलम से--
*शेड्स *
नामचीन लेखिका आदरणीया संध्या तिवारी जी की पुस्तक ‘शेड्स ‘..कुछ दिनों पहले मुझे उपहार स्वरूप मिली | सबसे पहले आपका तहे दिल से शुक्रिया ,सादर आभार |
मैं साधारण सी लेखिका!सच कहूँ तो इस पुस्तक को पढ़ कर मेरे अंदर का लेखक तृप्त हो गया!अपनी आपबीती और दिल में उमड़ती भावनाओं को आपने बिना लाग लपेट के जितनी सच्चाई और संवेदना से पेश किया है, वो काबिलेतारीफ है ।शैली और कलात्मक लेखन ... इन दोनों दृष्टिकोण से यह पुस्तक मेरे दिल में घर कर गई | इसे पढने के बाद जो अनुभूति हुई उसे शब्दों में बयाँ करने का मैंने भरसक प्रयत्न किया है | पता नहीं, मैं आपकी भावनाओं को कितना समझ पायी !
पुस्तक का आवरण पृष्ठ .... दो हाथ एक दूसरे से दूरी बनाये हुए , अनकहे में बहुत कुछ कह रही है | 96 पृष्ठ और 22 अनुक्रम की यह पुस्तक .. जीवन के विविध रंगों एवं अनुभवों को समेटे अपनाप में विशिष्ट है | आपकी तार्किक क्षमता और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रशंसनीय है | बीच-बीच में उद्धरित संस्कृत के श्लोक न केवल पुस्तक की गरिमा को चार चाँद लगा रहा है , अपितु आपकी विद्वत्ता को भी भरपूर रेखांकित कर रहा है |
अब पुस्तक के अनुक्रम की ओर बढती हूँ | जो पंक्तियाँ मुझे बहुत प्रभावित किया ,वो निम्नलिखित हैं----
*कुमुदनी बनाम बेहाया – लेखिका अपने बारे में लिखती हैं ---“यों तो मैं मध्यमवर्गीय परिवार से हूँ ...जहाँ स्वेच्छाचारिता के लिए कोई स्थान नहीं है | बिना किसी फसाने के किशोरवय बीती ,उसके बाद घर वालों की इच्छा के अनुरूप यौवन की शैशवावस्था में ही व्याह दी गई | मैं उनके लिए सास-ससुर की सुलक्षणा बहू , बहनों के लिए माँ सामान भाभी और उनके लिए पतिव्रता स्त्री थी जो कहीं पुरानों में पायी जाती रही होगी | इससे इतर शायद उनकी कोई कल्पना ही न थी ,और मैं उनकी कल्पना के ठीक उलट प्रेमिका की कल्पना में जी रही थी |”
इसी क्रम में आगे ... एक जगह स्माल गेज ट्रेन का हु ब हू चित्रण किया गया है | पति के साथ वो ट्रेन से मायेके जा रहीं हैं | ट्रेन आउटर सिग्नल के पास काफी देर से रुकी है | उसे खिड़की के सामने एक डबरा दिखा....उसमें कुमुदनी का फूल | उसने पति से हठ किया ,“ सुनो न मुझे कुमोदनी ला दो , प्लीज |” ..... उन्होंने मुझे धकियाते हुए खिड़की से झांककर देखा फिर बोले, क्या करोगी फूल का और गाड़ी चल दी तो ?” --- यहाँ लेखिका ने पति के रुखड़े स्वभाव को बखूबी इंगित किया है | जिसका हृदय कल्पना की उड़न भरना नहीं जानता !
*एक पत्र उम्र के सोलहवें बसंत के नाम ---- “.......जब मेरे सोलहवें बसंत की चुगली रजनीगंधा हवा से करती ..और हवा सबके कान में मंतर सा फूंक आती थी ..तब शिकंजे कस दिए जाते थे आसपास और सघन हो जाती थी घरेलू और सामाजिक पहरेदारियाँ |” कितना अच्छा लिखा है , सोलहवें बसंत की चुगली ...वाह !
* दुर्घटना के बाद --- 22 मई को हुए पति के एक्सीडेंट के उनके जन्मदिन पर लेखिका ने हृदय के उद्गार व्यक्त किये ---“ आप हमारे जीवन का सुनहरा रंग हैं | ये बात दुःख की घड़ी में मालुम पड़ी | आप हैं तो अस्तित्व है | दुःख जीवन में केवल मौन नहीं भरता , सिख भी देता है | हम सब जल्दी-जल्दी एक जीवन में कई जीवन जिए जाने की जिद्द में लगे रहते हैं लेकिन....एक ही मुकम्मल जिन्दगी जी ले वही काफी है |” बहुत सही लिखा है संध्या जी ने |
*वह एक दिन — इसमें अत्यंत कारुणिक और अध्यात्मिक भाव से लेखिका ने दक्षिणेश्वर काली को स्मरण किया है | जिसे समझना आसन नहीं था | मुझे दो-तीन बार पढना पड़ा | आरम्भ श्रीमद्भागवतगीता के चतुर्थ अध्याय के पांचवें श्लोक से है | संस्कृत से लेखिका को कितनी रूचि है और ज्ञान भी ...यह इस बात का प्रतीक है |
* उच्छ्वास – सच में कोरोना काल मानव के लिए अभिशाप बनकर आया वहीं प्रकृति के लिए वरदान | बहुत ही सशक्त एवं मार्मिक चित्रण किया गया है |“लॉकडाउन के रीते दिनों और खुद्दुरी रातों की अलसाई सुबहें अक्सर बच्चों की पिटाई और उसके बाद बच्चों की पंचम स्वर में किकिआते हुए रोने की आवाज से होती हुई शामें ....”
मेरी समझ से इस पंक्ति में ‘पंचम स्वर’ के बदले ‘करुण स्वर’ लिखा होना चाहिए था ..क्यूंकि ‘पंचम स्वर’ शब्द का प्रयोग हमेशा सकारत्मक के लिए ही होता है|
*श्मश्रु – मतलब (दाढ़ी –मूँछ) ,यह शब्द मेरे लिए नया था | मैंने शब्दकोश का सहारा लिया | लेखिका ने अपने मिलिटरी मामा के मूँछों के बारे में मजेदार लिखा है –“ऐसा लगता था जैसे आवाज और मूंछों को हमेशा पेट्रोलियम जैली या कड़क कलफ में डूबोकर ....सुखाकर अभी-अभी अलगनी से उतारकर लाये हो |”
* नौकरेष्णा --- “अपनी शैक्षणिक योग्यता का उपयोग और उपभोग कैसे हो,दिन-रात इच्छा सर्पिनी अपनी लपलपाती दोमुंही जिह्वा से कहीं किसी अवसर रूपी शिकार की टोह में रहने लगी थी |” लेखिका ने बिलकुल सही लिखा है , आज से लगभग पचीस -तीस साल पहले मिडिल क्लास फेमिली में पढ़ी-लिखी बहू की यही मनोदशा रहती थी | नौकरी करने के लिए उसे बहुत जद्दोजहद करना पड़ता था | लेकिन संध्या जी ने बहुत संघर्ष किया ,अपनी महत्वाकांक्षाओं को कभी मरने नहीं दिया | पढ़कर मुझे बहुत प्रेरणा मिली लेकिन संघर्षों की कथा पढ़ कर कलेजा धक् से रह गया , औरत की अग्नि परीक्षा हर युग में होती है !
* अरे, लोगों तुम्हारा क्या..मैं जानूँ मेरा खुदा जाने –-- नीम के पेड़ से दोस्त की तरह बातें करना और उसके बारे में लेखिका की भावना को पढ़कर रोम-रोम पुलकित हो उठा | “वह निर्विकार है |अपराजय भी , क्यूंकि मैंने नीम के फूल कभी मुरझाते नहीं देखे | वह सदा मुस्कुराते हैं, चाहे शाखों पर हों या जमीन पर |”
* हम भी उठेंगे अपनी राख से किसी रोज –-- एक बार संध्या जी को अभिनय करने का ऑफर आया --- “अनुराग कश्यप की एक फिल्म ‘मुक्केबाज ‘ में ..... “मेहमान कलाकार“ के अभिनय के लिए... एक परिचित ने मुझे फोन किया, “उसके लिए कुछेक कलाकार स्थानीय चाहिए , आप करेंगी ..?”.....मैं कुछ हकला गई लेकिन प्रति उत्पन्न मति ने मुझे तुरंत संभाल लिया |“ आगे वो लिखती हैं ,”........लेकिन अब घर में क्या बहाना बना कर बरेली जाऊँगी? यह विचार मन को इस तरह मथे जा रहा था कि....उमस वाली आषाढ़ी गर्मी में किसी ने अनजाने ही ....बिन खिड़की वाली कोठरी का बाहर से दरवाजा बन्द कर दिया है “| आगे वो लिखती हैं--“चीजों को अपनी परिधि में जबरदस्ती लाने वह आपकी नहीं हो जाती | मैं जीवन से शायद कुछ ज्यादा ही माँग लेती हूँ |” यह पंक्ति बहुत ही विचारणीय और सच्ची लगी |
*सब ठाठ पड़ा रह जाएगा – इसमें भी कोरोना काल का हृदयविदारक चित्रण किया गया है | यहाँ मैं कहना चाहूँगी कि यदि इसे ‘उच्छ्वास’ अनुक्रम के साथ या उसके तुरंत बाद लिखा जाता तो अच्छा तारतम्य बैठता| क्यूंकि दोनों में कोरोना काल का ही मर्मस्पशी चित्रण है |
*ऐ..स ..क्रे..म --- बहुत मजेदार संस्मरण | गली-मुहल्ले में घूम-घूम कर सामन बेचने वाला जिस तरह से आवाज लगाता है, यदि हम झांक कर नहीं देखें तो क्या बेचता है, वो सही से पता नहीं चलता | ऐसा ही हुआ, गली में आवाज देकर कोई मैक्सी बेच रहा था..और लेखिका को सुनाई पड़ा जैसे वो आइसक्रीम बेच रहा है |
*वह जो साकार प्रेम है --- प्रेम को अलंकृत रूप से इस तरह परिभाषित करना, वाह! --“तभी तो प्रेम के फूल किसी एक मुकद्दस महीने नहीं पुरे वर्ष भर खिलते रहते हैं | जब जीवन दुखों की घाम से चटख रहा हो तब भी ये कृष्णचूड़ा या कर्णिकार से लहलहा उठते हैं | शरद ऋतू में पारिजात से लकदक कर देते हैं |”
*उड़ जाएगा हंस अकेला – अपने दिवंगत पिता को याद करती लेखिका |
* वैधव्य---पिता की मृत्यु के बाद विधवा हुई माँ की दर्द भरी गाथा ---“आज जब पति दुनिया के आंगन से विदा हुआ तो लोगों ने उसकी साँसें छोड़ सब छीन लिया |” आगे .....“पशु समाज मुझे ज्यादा रुचता है | .....जब तक भूख न हो कोई किसी को अपने अहम की , या रीती-नीति की बेदी पर बलि नहीं चढ़ाता । हे! समाज , स्त्री को वस्तु में तब्दील करना तुमसे अच्छा कौन जानता है... !”
*अंतिम विदा वेला के क्षणों में--- इस अनुक्रम को पाँच भागों में विभक्त किया गया है | सभी एक से बढ़कर एक बेहद संवेदनशील है | घर में कामवाली बूढी नौकरानी, जिसे मौसी के नाम से लेखिका ने संबोधित किया है | मौसी का आदतन हमेशा कुछ पैसे माँगना | उस दिन भी ऐसा ही हुआ ,मौसी ने कहा, “तनिक दै देओ|” आगे लेखिका लिखती हैं--- “मैंने यह बात उस समय महसूस की थी ....लेकिन कभी-कभी इंसान इतना संसारी हो जाता है कि वह अपने जमीर की आवाज पर भी ध्यान नहीं देता | उस दिन मेरा भी कुछ ऐसा ही हाल हुआ | दो दिन बाद उसके शराबी बेटे ने आकर मुझसे कहा, “ वह अब इस दुनिया में नहीं रही |” उसके बेटे के हाथ पर पैसा देते हुए लेखिक का मन ग्लानि से भर गया... “ काश! ये रूपये मैंने उसे दो दिन पहले दिए होते तो शायद वो जिन्दा होती |” आगे....“गंदले पायजामें का चिकट नारा कुर्ते से बाहर ऐसे झाँक रहा था , जैसे साबुन की सफेद झाग के बीच रपकती मेल पानी की धार |”
वाह ! कमाल की लेखनी !
पढ़कर मुझे यह एहसास हुआ कि यदि इस पुस्तक का नाम हिंदी या संस्कृत में रहता तो अधिक श्रेयस्कर होता |
इस अनुपम कृति के लिए आदरणीया Dr.sandhya tiwari जी को हृदय से साधुवाद | मुझे पूर्ण विश्वास है, सभी पाठकों को यह पुस्तक बहुत रुचिकर लगेगी |
संध्या जी, आपसे एक विनम्र निवेदन , इसे उपन्यास के रूप में लिखने का जरूर प्रयत्न करें |
उज्ज्वल भविष्य की असीम शुभकामनाएँ | सादर 🙏
त्रुटियों के लिए क्षमा सहित,
मिन्नी मिश्रा, पटना
24.10.21
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